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मरणकण्डिका - ४८८
रौद्रमात त्रिधा त्यक्त्वा, सुगति-प्रतिबन्धकम् ।
धर्म-शुक्ल-द्वये योगी, साम्यं कर्तुं प्रवर्तते ।।१७९० ॥ अर्थ - उत्तम गतियों के प्रतिबन्धक इन आर्तध्यान एवं रौद्रध्यानों को मन, वचन एवं काय से छोड़कर योगी अथवा क्षपक को समता भावों की स्थिरता के लिए धर्म-ध्यान एवं शुक्ल ध्यानों में प्रवृत्त हो जाना चाहिए ।।१७९० ॥
प्रशस्त ध्यानों में प्रवृत्त होने की प्रेरणा ध्याने प्रवर्तते कांक्षन-कषायाक्ष-निरोधनम।
वश्यत्वं मनसो मार्गादभ्रंशं निर्जरा परम् ॥१७९१ ।। अर्थ - कषायों और इन्द्रियों का प्रसार रोकने के लिए, चित्त को वश में करने के लिए, रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग से च्युत न होने के लिए और अत्यधिक निर्जरा के लिए योगीजन धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान में प्रवृत्त होते हैं ।।१७९१ ॥
प्रश्न-किसका चित्त स्व-वश में रह सकता है और प्रशस्तध्यान में प्रवृत्त रहने को क्यों कहा गया है?
उत्तर - यहाँ काशय और इन्द्रिय शब्दों से क्रोधादि कषायों में एवं स्पर्शादि इन्द्रियों के विषयों में उपयोग की स्थिति है। जिसका चित्त वस्तु के यथार्थ स्वरूप में स्थिर रहता है उसकी प्रवृत्ति इन्द्रियों के विषयों से उत्पन्न हुए उपयोग की ओर नहीं जाती और न उसमें कषायों की उत्पत्ति ही होती है तथा जो आत्महित रूप इष्ट विषय में चित्त को बार-बार संलग्न करता है और विषय-कषायरूप अनिष्ट से चित्त को हटाता है उसका मन स्व-वश में रहता है। क्षपक भी जानता है कि यदि मैं अशुभ ध्यान में जुटा रहूँगा तो रत्नत्रय से च्युत हो जाऊँगा, अतः वह शुभ ध्यान में संलग्न रहने का सतत प्रयत्न करता है।
ध्यान का परिकर एकाग्र-मानसश्चक्षुळवयं पर-वस्तुतः ।
आत्मनि स्मृतिमाधाय, ध्यानं श्रयति मुक्तये ।।१७९२ ।। अर्थ - पर वस्तु से दृष्टि हटाकर, मन को एकाग्र कर और अपनी आत्मा में स्मृति अर्थात् बुद्धि को लगाकर मुनिजन मुक्तिप्राप्ति के लिए ध्यान का आश्रय लेते हैं ।।१७९२॥
प्रश्न - ध्यान के इस परिकर को कैसे साधना चाहिए ?
उत्तर - जब तक दृष्टि इधर-उधर जाती रहती है तब-तक मन चंचल ही रहता है, अत: पर-वस्तुओं से हटा कर दृष्टि को नाक के अग्रभाग पर स्थिर करके, किसी एक परोक्ष वस्तुविषयक ज्ञान में मन को जुटा कर श्रुतज्ञान से जाने हुए विषयों का स्मरण करते हुए आत्मा में लीन हो जाना चाहिए, यही ध्यान संसार से छूटने का कारण है।
प्रत्याहृत्य मनोऽक्षाणि, विषयेभ्यो महाबलः । प्रणिधानं विधत्तेऽसावात्मनि ध्यान-लालसः ।।१७९३ ।।