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मरणकण्डिका - ४९८
एवं प्रशस्त ज्ञान की प्रशंसा न करने से जीव ज्ञानावरण कर्म का बन्ध करते हैं तथा विद्यमान भी अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा भेद वाला मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान ज्ञानादि का निग्रह करने से, अकाल में स्वाध्याय करने से, दूसरों की इन्द्रियों का घात करने से एवं अपनी इन्द्रियों की विशिष्टता का अभिमान करने से नष्ट हो जाता है।
प्रश्न- जीव ज्ञानावरण कर्म के उदय का और क्या-क्या फल भोगता है ?
उत्तर - जो पहले ज्ञानावरण कर्म का नीच कर्मबन्ध कर चुका है वह सम्यक्रूरूप से पदार्थ को अवग्रहित करने में, ईहित करने में, अवाय रूप से निर्णय करने में एवं जाने हुए को धारण करने में असमर्थ रहता है अर्थात् उसे पदार्थों का अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणाजन्य ज्ञान नहीं हो पाता । ज्ञानावरण कर्मरूपी महामेघ से ढका हुआ वह जीव एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चौइन्द्रिय एवं असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यायों को प्राप्त कर चिरकाल तक दुख भोगता है। संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्य ज्ञानावरण कर्म के विशेष उदय की वशवर्तिता के कारण न हित को देखता है, न जानता है, न हित को जानने की इच्छा ही करता है, न पात्र को विधिपूर्वक दान देता है और न जिनेन्द्र की पूजनादिरूप षट्कर्म करता है। इस प्रकार वह पशु सदृश जीवन व्यतीत करता है। बुद्धिमात्र से प्राप्त करने योग्य अपने समीपवर्ती को भी नहीं पावर्ती एवं शास्त्रों द्वारा जानने योग्य परलोक सम्बन्धी हित को कैसे जान सकता है ? ऐसे मनुष्यों का यह अज्ञानभाव महा भयंकर अंधकारमय गुफा के भीतर प्रवेश करने से, निरन्तर अगाधजल में डूबे रहने से और चिरकाल तक जेलखाने में पड़े रहने से भी अधिक कष्टदायी होता है।
श्रुतज्ञान तीसरा विशाल नेत्र है किन्तु बुद्धिहीन मनुष्य साधन-सामग्री होते. ग्रहण नहीं कर सकता !
हुए
अर्थः पापोदये पुंसो, हस्त प्राप्तोऽपि नश्यति ।
दूरतो हस्तमायाति, पुण्य कर्मोदये सति ।। १८१७ ।।
भी उस हितकारी ज्ञान को
अर्थ - जीव के जब पाप अर्थात् लाभान्तराय कर्म का उदय आता है तब उसके हाथ में आया हुआ भी धन नष्ट हो जाता है और पुण्य कर्म का अर्थात् लाभान्तराय कर्म का क्षयोपशम होने पर देशान्तर आदि में बहुत दूर भी स्थित धनादि वैभव बिना प्रयत्न किये हाथ में आ जाता है || १८१७ ॥
नरः पापोदये दोषं, यतमानोऽपि गच्छति ।
गुणं पुण्योदये श्रेष्ठ, यत्न-हीनोऽपि तत्त्वतः ।। १८१८ ॥
अर्थ - पाप अर्थात् अयश: कीर्ति नाम कर्म के उदय से सम्यक् प्रयत्न करने वाला भी मनुष्य दोषी सिद्ध हो जाता है और पुण्य अर्थात् यशःकीर्ति नामकर्म के उदय में बिना प्रयत्न किये ही अथवा अयोग्य कार्य करते हुए भी यश एवं कीर्ति को प्राप्त हो जाता है ॥ १८१८ ।।
पुण्योदये परां कीर्ति, लभते गुण-वर्जितः ।
पापोदयेऽश्नुते गुर्वीमकीर्तिं गुणवानपि ।। १८१९ ॥
अर्थ - गुणरहित भी कोई मनुष्य पुण्य कर्मोदय में यश को प्राप्त हो जाता है और पाप के उदय में गुणवान्
भी अत्यधिक अपयश को प्राप्त हो जाता है || १८१९ ॥