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भरणकण्डिका - ५२२
बन्धू रिप गिन्धुिर्जायते मार्यतस्ततः ।
यतो रिपुत्व-बन्धुत्वे, संसारे न निसर्गतः ।।१८९७ ।। अर्थ - संसार में अपने-अपने कार्यवश बन्धुजन शत्रु और शत्रुजन बन्धु बन जाते हैं अतः यह निश्चित मानो कि इस संसार में बन्धुत्व और शत्रुत्व स्वाभाविक नहीं हैं॥१८९७ ।।
वक्रेण विमला-हेतोः, सुदृष्टिर्विनिपातितः।
निजाङ्गनाङ्गजो भूत्वा, जातिस्मरो बत ॥१८९८ ।। अर्थ - सुदृष्टि नामक रत्नपारखी अपनी पत्नी विमला के निमित्त अपने सेवक वक्र के द्वारा मारा गया और भरकर अपनी पत्नी विमला के ही गर्भ से पुत्र उत्पन्न हुआ। वहाँ उसे जातिस्मरण हो गया। अर्थात् उसे ज्ञान हो गया कि मैं अपनी पत्नी के गर्भ में अपने ही वीर्य से पैदा होने वाला पुत्र हूँ॥१८९८ ॥
* सुदृष्टि सुनारकी कथा * उज्जैन में सुदृष्टि नामका एक सुनार था। वह जवाहरातके जेवर बनानेमें बड़ा निपुण था। उसकी पत्नी विमला दुराचारिणी थी। अपने ही घर में रहने वाले विद्यार्थी वक्र से उसका अनुचित संबंध था। विमला ने एक दिन उस यार से कहकर अपने पति सुदृष्टि को मरवा डाला । वह मरकर उसी विमला के गर्भ में आया, यथासमय पुत्र हुआ और क्रमशः बड़ा हो गया। किसी दिन उस उज्जैन नगरी के राजा प्रजापाल की पट्टदेवी सुप्रभा का मूल्यवान रत्नहार टूट गया। अनेक सुनारों के पास उसे भेजा गया, किन्तु कोई भी उस हार को ठीकसे बना नहीं पाया। अन्तमें उसी विमलाके यहाँ वह हार पहुँचा। उसके पुत्र ने जैसे ही हार देखा, वैसे उसको जातिस्मरण होगया। उसने हार तो बना दिया, किन्तु उस दिनसे वह अत्यंत उदास रहने लगा। राजाको हार ठीक हो जानेसे बड़ी प्रसन्नता हुई, अतः उसने उस सुनारपुत्र को बुलाकर पूछा कि-इस हारको कोई बना नहीं पा रहा था, तुमने कैसे बनाया ? तब उसने एकांतमें अपने पूर्वभवसे अब तक का सारा वृत्तांत सुनाया। राजा प्रजापाल आश्चर्यचकित हो गया, उसे इस विचित्र भव परम्परा को देखकर वैराग्य हुआ। सुनारपुत्र तो पहले से ही उदास हो चुका था, उसका मन ग्लानिसे भरा था कि अहो ! यह कैसा परिवर्तनशील संसार है ! जहाँ स्वयंकी पत्नी से पतिका जन्म पुत्र रूपसे होता है । धिक् ! धिक् ! मोहतम को ! इसप्रकार विचार कर उसने भी अपना कल्याण किया।
श्रोत्रियो ब्राह्मणो भूत्वा, कृत्वा मानेन पातकम् ।
सूकरो मण्डल: पाणो, शृगालो जायते बकः ॥१८९९ ।। अर्थ - श्रोत्रिय ब्राह्मण होकर अपनी जाति का मान कर नीच गोत्रकर्म का बन्ध करता है जिसके फलस्वरूप मनुष्य आयु पूर्ण होने पर सूकर, कुत्ता, चाण्डाल, सियार और बगुला हो जाता है अर्थात् जो उच्च पर्याय में था वही नीच से भी नीच पर्याय प्राप्त कर लेता है ।।१८९९॥
निन्दा दारिद्र्यमैश्चर्य, पूजामभ्युदयं स्तुतिम् ।
स्त्रैणं पौंस्नं चिरं जीवः, षण्ढत्वं प्रतिपद्यते ।।१९०० ॥ अर्थ - यह जीव कर्माधीन होने के कारण किसी एक अवस्था में सदा स्थिर नहीं रहता। कभी निन्दा