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मरणकण्डिका - ५३०
उपसंहार
कुदर्शनावृत्त - - कषाय - योगेजवो भवे मज्जति कर्म पूर्णः । दुरापपारे विवरैरनेकैः, पोतः पयोधाविव वारि-पूर्णः । । १९२७ ॥
इत्यास्रवानुप्रेक्षा ।
अर्थ · जैसे अनेक छिद्रों द्वारा जिसमें जल भर चुका है ऐसी नौका दुरन्त समुद्र में डूब जाती है, वैसे ही मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय और योगों द्वारा आये हुए कर्मभार से युक्त जीव भवसागर में डूब जाता है । १९२७ ॥
इस प्रकार आसानुप्रेक्षा पूर्ण हुई ॥८ ॥
संबर- अनुप्रेक्षा
संवर करने की विधि
मिथ्यात्वमात्रय द्वारं पिधत्ते तत्त्व- रोचनम् । संयमासंयमं सद्यो, गृहीत्वारभिवाररे ।। १९२८ ।।
अर्थ जैसे द्वार को बन्द कर अर्गला, साँकल या कुन्दादि लगाकर बाहर से आने वाले चोरादि को रोक दिया जाता है वैसे ही सम्यग्दर्शन, मिथ्यात्व आस्रव द्वार को और देशसंयम एवं सकलसंयमरूप व्रतों को ग्रहण कर विवेकी जीव अविरति नामक आस्रव द्वार को शीघ्र ही बन्द कर देते हैं || १९२८ ॥
कषाय- तस्कराः रौद्राः, दया दम- शमायुधैः । शक्यन्ते रक्षितुं दिव्यैरायुधैरिव - तस्कराः ।।१९२९ ।।
अर्थ - जैसे दिव्य शस्त्रों द्वारा चोर एवं डाकुओं को भगाकर धन-जन की रक्षा करना शक्य है वैसे ही दया, दम और शम इन तीन शस्त्रों द्वारा ही कषायरूपी क्रूर डाकुओं को रोकना शक्य है ।। १९२९ ॥
प्रश्न - दया, दम और शम किसे कहते हैं, यहाँ मात्र कषायों को जीतने का उपदेश क्यों दिया गया है तथा कौनसी कषाय किस भाव से जीती जा सकती ?
उत्तर • सब प्राणियों पर आर्द्र परिणाम होना दया है। कषायों के दोषों का विचार कर चित्त का निग्रह
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करना दम है और कषाय वेदनीय कर्म को उदय अवस्था को प्राप्त न होने देना शम अर्थात् उपशम है। सब कर्मबन्ध की स्थिति कषाय से ही बँधती है अतः कर्मबन्ध का मूल कारण कषाय है। जिसने कषाय को जीत लिया उसने मानों सबको जीत लिया, इसीलिए कषायों को जीतने का उपदेश दिया गया है।
क्रोध के दोषों को जानने से, क्रोधादि में निमित्तभूत पदार्थों से अपना बचाव करने से और क्षमादि परिणामों से क्रोध को, मार्दवभाव धारण करके मान को, आर्जवभावों की उत्कर्षता से माया को और सन्तोष भावों द्वारा लोभ कषाय को जीतना चाहिए।