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मरणकण्डिका - ५३५
अर्थ - तपश्चरण द्वारा शक्तिहीन किया हुआ कर्म स्वयं पलायमान हो जाता है सो यथार्थ ही है, क्या स्नेह अर्थात् चिकनाई से रहित स्फटिक पाषाण पर कहीं धूल ठहर सकती है ? अपितु नहीं ठहर सकती ; उसी प्रकार समीचीन तप करने पर कर्म नहीं 3डर पाता, रिजर्ग हो जाता है .....li
तपसा ध्मायमानोऽङ्गी, क्षिप्रं शुद्ध्यति कर्मभिः।
पाषाणः पावकेनेव, कानकः सकलैर्मलैः॥१९४६ ।। अर्थ - कनक पाषाण जैसे अग्नि द्वारा तपाये जाने पर समस्त मलों का त्याग कर शुद्ध स्वर्ण हो जाता है, संसारी जीव वैसे ही तपरूपी अग्नि द्वारा तपाये जाने पर कर्ममल को त्याग कर शीघ्र ही शुद्ध हो जाता है।।१९४६॥
मोक्ष: संवर-हीनेन, तपसा न जिनागमे ।
रविणा शोच्यते नीरं, प्रवेशे सति किं सरः ।।१९४७ ।। अर्थ - जिनागम में संवर बिना केवल तप से ही सब कर्मों के विनाशरूप मोक्ष नहीं कहा, सो ठीक ही है। देखो ! जिस सरोवर में सौर द्वारा नवीन जल प्रविष्ट हो रहा है, वह सरोवर क्या सूर्य द्वारा सुखाया जा सकता है ? कदापि नहीं ॥१९४७॥
दर्शन-द्विपमधिष्ठितो बुधो, लब्ध-बोध-सचिवस्तपः शरैः । कर्म-शत्रुमपहत्य संवृतः, सिद्धि-सम्पदमुपैति शाश्वतीम् ॥१९४८ ॥
इति निर्जरा। अर्थ - (जिसने संवर रूपी कवच धारण किया है), जो सभ्यक्त्व रूपी हाथी पर सवार है, सम्यग्ज्ञान या श्रुतज्ञान रूपी मन्त्री जिसके साथ है ऐसा संयमधारी मुनिरूपी राजा तपोमय बाणों के द्वारा कर्मरूपी शत्रुओं की समस्त सेना को पराजित कर शाश्वत और अनुपम मोक्षरूपी लक्ष्मी को प्राप्त कर लेता है ।।१९४८ ।।
इस प्रकार निर्जरा की परम उपादेयता, निर्जरा के भेद-विभेद एवं निर्जरा के हेतु आदि का चिन्तन करना निर्जरानुप्रेक्षा है। इस प्रकार निर्जरा अनुप्रेक्षा का कथन पूर्ण हुआ॥१०॥
धर्म-अनुप्रेक्षा
धर्म का गुणानुवाद मोक्षावसान-कल्याण-भाजनेन शरीरिणा।
आहतो भावना-धर्मों, भावतः प्रतिपद्यते ।।१९४९॥ अर्थ - मोक्षप्राप्ति पर्यन्त जो-जो कल्याण-परम्परा प्राप्त होती हैं, उन सबका भाजन अर्थात् स्वामी जीव है और वे कल्याण रूप सर्व परम्पराएँ जिनेन्द्रोपदिष्ट धर्म के सहयोग से ही प्राप्त होती हैं अतः प्रत्येक प्राणी को भावपूर्वक रत्नत्रय धर्म धारण करना चाहिए ।।१९४९ ।।