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मरणकण्डिका - ५३३
अर्थ - जो मुनिजन परीषहरूपी शत्रुसमूह से पीड़ित होने पर भी कभी तत्त्व की स्मृति को अर्थात् तत्त्वचिन्तन को नहीं छोड़ता वह निश्चयतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूपी सम्पदा को अर्थात् चार आराधनाओं को पूर्णरूपेण प्राप्त कर कर्मों का संवर कर देता है ।।१९३७ ।।
इस प्रकार संवर अनुप्रेक्षा का वर्णन पूर्ण हुआ॥९॥
निर्जरा-अनुप्रेक्षा निरालिर तप आवश्यक है यो मुनिर्यदि शुद्धात्मा, सर्वथा कर्म-संवरम् ।
करोति निर्जरा-कांक्षी, सिद्धये विविधं तपः॥१९३८॥ अर्थ - जो शुद्धात्मा मुनि सर्वथा कर्मसंवर करने में उद्यमी होता है वह निर्जरा का आकांक्षी होता हुआ मोक्षप्राप्ति के लिए विविध प्रकार के तपश्चरण करता है, क्योंकि तप निर्जरा का कारण है।।१९३८ ।।
न कर्म-निर्जरा जन्तोर्जायते तपसा विना।
सञ्चितं क्षीयते धान्यमुपयोगं विना कुतः ।।१९३९॥ अर्थ - जैसे संचित किया हुआ धान्य उपयोग में लाये बिना अर्थात् भोजनादि के काम में लिये बिना घटता नहीं है, अर्थात् समाप्त नहीं होता, वैसे ही तप के बिना संवर मात्र से कर्मों का क्षय नहीं होता अतः निर्जरा के लिए तप करना आवश्यक है।।१९३९ ।।
पूर्वस्य कर्मणः पुंसो, निर्जरा द्विविधा मता।
आद्या विपाकजा तन्त्र, द्वितीया त्वविपाकजा ।।१९४०॥ अर्थ - जीव के पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा दो प्रकार की होती है, एक विपाक निर्जरा और दूसरी अविपाक निर्जरा ॥१९४०॥
दोनों निर्जराओं के लक्षण नानाविधानि कर्माणि, गृहीतानि पुराभवे ।
फलानीव विपच्यन्ते, कालेनोपक्रमेण च ।।१९४१ ॥ अर्थ - आम्रादि फल जैसे समय पाकर वृक्ष की डाल पर ही पक जाते हैं और कोई असमय में प्रयोग द्वारा पाल में रखकर शीघ्र पका लिये जाते हैं, वैसे ही पूर्वबद्ध कर्म काल-क्रमानुसार एवं अक्रम से अर्थात् दोनों विधियों से निर्जीर्ण होते हैं ।।१९४१ ।।
कालेन निर्जरा नूनमुदीर्णस्यैव कर्मणः।
तपसा क्रियमाणेन, कर्म-निर्जीर्यतेऽखिलम् ।।१९४२ ।। अर्थ - कर्मों की जो निर्जरा समय पाकर होती है वह मात्र उदयावली में आये हुए कर्म-निषेकों की ही होती है किन्तु तपश्चरण द्वारा अखिल कर्म निर्जीर्ण अर्थात् नष्ट हो जाते हैं ।।१९४२॥