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मरणकण्डिका ५३२
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हैं, इत्यादि । इस प्रकार का चिन्तनरूप अप्रमाद स्नेह प्रमाद का प्रतिपक्षी है। अर्थात् ऐसे चिन्तन से स्नेह प्रमाद का नाश हो जाता है। इस प्रकार दृढ़ वैराग्यवान् साधुजन अप्रमादरूपी ढाल हाथ में लेकर प्रमाद रूपी शत्रुओं से लड़ते हैं। इस ढाल के कारण प्रमादजन्य आसव रुक जाता है और संवर हो जाता है।
कर्मभिः शक्यते भेत्तुं न चारित्रं कदाचन ।
सम्यग्गुमि परिक्षिप्तं, विपक्षैरिव पत्तनम् ।।१९३३ ।।
अर्थ - जैसे प्रबल भी शत्रु की सेना परिखा आदि से सुरक्षित नगर को नष्ट नहीं कर पाती, वैसे ही चारित्र मोहनीय कर्मरूपी सबल भी शत्रु सेना द्वारा सम्यग्गुप्तिरूपी परिखा से सुरक्षित चारित्ररूपी नगर कदाचित् भी नष्ट नहीं किया जा सकता है ।। १९३३ ॥
प्रश्न- गुप्तियाँ कौन-कौन सी हैं और वे आत्मा का क्या उपकार करती हैं ?
उत्तर - मनगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति के भेद से गुप्तियाँ तीन प्रकार की हैं। ये तीनों सबल गुप्तियाँ क्षणमात्र में आस्रवों को निरस्त कर आत्मा को संवर से संयुक्त कर देती हैं, क्योंकि ये तीनों गुप्तियाँ परम संवर का सर्वोत्कृष्ट हेतु हैं।
गुण-बन्धनमारुह्य, संयतः समिति - प्लवम् ।
हिंसादि - मकराग्रस्तो, जन्माम्भोधिं विलङ्घते । १९३४ ॥
अर्थ - प्रमादरहित साधु सम्यक्त्वादि गुणरूप बन्धन से युक्त दृढ़ समिति रूप नाव पर आरूढ़ होकर, हिंसादि पाप रूपी मगरमच्छों से अछूते रहते हुए ही भयावह संसार समुद्र को पार कर जाते हैं ।। १९३४ ॥ द्वारपाल इव द्वारे, यस्यास्ति हृदये स्मृतिः । दूषयन्ति न तं दोषा, गुप्तं पुरमिवारय: ।। १९३५ ॥
अर्थ - जैसे संबल शत्रु भी सुरक्षित नगर को नष्ट नहीं कर सकते, वैसे ही द्वार पर खड़े द्वारपाल के सदृश जिसके हृदय में वस्तुतत्त्व की स्मृति सजग है उस साधु के हृदय को सर्व दोष मिल कर भी दूषित नहीं कर सकते ।। १९३५ ॥
न यस्यास्ति स्मृतिश्चित्ते, स दोषैर्ग्रस्यते स्फुटम् । असहायोऽखिलैः क्षिप्रं विचक्षुरिव वैरिभिः ।। १९३६ ।।
अर्थ - जैसे शत्रुओं के मध्य खड़ा असहाय एवं अन्धा मनुष्य शत्रुओं के द्वारा शीघ्र ही पकड़ लिया जाता है, वैसे ही जिस साधु के हृदय में समीचीन वस्तुतत्त्व की स्मृति नहीं रहती, अथवा जो साधु तत्त्व-चिन्तन में स्थिर नहीं रह पाता वह शीघ्र ही तथा नियमतः दोषों द्वारा ग्रसित कर लिया जाता है । १९३६ ॥
ज्ञान दर्शन - चरित्र - सम्पदं, पूर्णतां नयति स व्रती स्फुटम् ।
यो विमुञ्चति परीषहारिभिर्बाधितोऽपि न कदाचन स्मृतिम् ।।१९३७ ।।
इति संवरानुप्रेक्षा ।