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मरणकण्डिका- ५२६
अदृश्यै चक्षुषा दृश्यैः, स्थूलैः सूक्ष्मैश्च पुद्गलैः । विविधैर्निचितो लोकः, कुम्भो धूमैरिवाभितः ॥ १९१६ ॥
अर्थ- जैसे कोई घट धुएँ द्वारा चारों ओर से भर दिया जाता है, वैसे ही यह लोक सर्वत्र कर्मरूप परिणमन करने योग्य नेत्रों से अदृश्यमान, सूक्ष्म पुद्गल स्कन्धों से और दृश्यमान एवं अदृश्यमान बादर पुद्गल स्कन्धों से ठसाठस भरा हुआ है । १९१६ ।।
मिथ्यात्वाव्रत- कोपादि - योगानत्रास्रवान्विदुः । मिथ्यात्वमर्हदुक्तानां पदार्थानामरोचनम् । १९१७ ॥
अर्थ - मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय और योग ये आस्रव है अर्थात् जिन कारणों से पुद्गल स्कन्ध कर्मरूप परिणत होकर आते हैं उन मिथ्यात्व आदि को आस्रव कहते हैं। इनमें से अर्हन्त भगवान् द्वारा कहे गये अनन्त द्रव्यात्मक जीवादि पदार्थों में अर्थात् सात तत्त्व और छह द्रव्यादि में श्रद्धान नहीं होना मिथ्यात्व नामका आस्रव है ।।१९९७ ॥
हिंसादयो मत्ता दोषाः, पञ्चाप्यव्रत-संज्ञकाः ।
कोपादयः कषायाः स्यूः, राग-द्वेष - द्वयात्मकाः ॥ १९१८ ।।
अर्थ - हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों को असंयम कहते हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषाय भाव अनेक प्रकार के होते हैं, इनमें से माया और लोभ का राग में तथा क्रोध और मान का द्वेष में अन्तर्भाव हो जाता है, अतः कषाय को द्वयात्मक कहा है ।। १९१८ ।।
प्रश्न- पाँच पापों के क्या लक्षण हैं ?
उत्तर - कषाययुक्त परिणामों से प्राणियों के प्राणों का नाश करना हिंसा है। प्राणियों को पीड़ा देने वाला अप्रशस्त वचन बोलना असत्य पाप है। बिना दी हुई या बिना पूछे अन्य की वस्तु ग्रहण करना चोरी पाप है। चारित्र मोहनीय कर्मोदय की वशवर्तिता से रागाविष्ट होकर स्त्री-पुरुषों में परस्पर स्पर्शनादि की इच्छा उत्पन्न होना मैथुन पाप है और चेतन, अचेतन और मिश्र पदार्थों में और अपने राग-द्वेषादि रूप परिणामों में ममत्वबुद्धि होना परिग्रह पाप है ।
राग और द्वेष का माहात्म्य
जानन्तं कुथिते काये, रागो रञ्जयते कथम् ।
बान्धवं कुरुते द्वेष्यं, द्वेषो हि क्षणतः कथम् ॥ १९१९ ॥
अर्थ - अहो आश्चर्य है कि राग के अयोग्य और अशुचि शरीर के स्वभाव को जानने वाले पुरुषों को भी यह रागभाव वीभत्स एवं घृणास्पद शरीर में कैसे रंजायमान कर देता है, तथा यह द्वेष्य भाव अपने भाई, पिता और पुत्र के प्रति भी क्षणमात्र में कैसे द्वेषभाव उत्पन्न करा देता है अर्थात् यह राग-द्वेष जिस शरीरादि से द्वेष करना चाहिए था उस पर तो राग कराता है और जिन बन्धु बान्धवों पर राग या प्रीति भाव होना चाहिए उनमें द्वेष करा देता है । १९१९ ॥