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मरणकण्डिका -५२३
का पात्र बनता है, कभी दरिद्री तो कभी ऐश्वर्यवान् होता है, कभी पूजा-आदर, वैभव एवं प्रशंसा प्राप्त करता है तथा चिरकाल कभी स्त्री, कभी पुरुष और कभी नपुंसक होता रहता है।।१९०० ।।
निकाशि नि:शुण्य, सदोषं मन्यते जनः ।
सदोषमपि पुण्यादयं, निर्दोष पुरुषः पुनः ॥१९०१॥ अर्थ - इस लोक में पुण्यहीन मनुष्य निर्दोष होने पर भी सदोष सिद्ध कर दिये जाते हैं और पुण्यवान् मनुष्य सदोष होते हुए भी निर्दोष सिद्ध हो जाते हैं ।।१९०१ ।।
निसर्गतः कोपि समेऽपि वल्लभो, विचेष्टतेऽन्योऽसुमतामवल्लभः।
समानरूपे सति चन्द्रिकोदये, प्रियो हि पक्षो धवलः प्रियोऽपरः ।।१९०२॥
अर्थ - जैसे दोनों पक्षों में चन्द्र की चाँदनी का समान उदय होने पर भी लोग कृष्ण पक्ष से द्वेष और शुक्ल पक्ष से प्रेम करते हैं, वैसे ही स्वभाव से समान होते हुए भी कोई व्यक्ति तो जीवों को प्रिय लगता है और कोई अप्रिय लगता है।।१९०२।।
विचिन्त्य मानं जगतो विचेष्टितं, विचित्ररूपं भयदायि दुर्गमम् ।
करोति वैराग्यमनन्यगोचरं, दुरीहितं पूर्वमिवोदयं गतम् ॥१९०३॥
अर्थ - इस प्रकार जगत् की विचित्र चेष्टाओं का और अत्यन्त दुख तथा भय देने वाले अहंकार का चिन्तन करने वाला बुद्धिमान् व्यक्ति वैराग्यभाव को प्राप्त हो जाता है। उनका वैराग्य जन-साधारण के अगोचर, अत्यन्त कठिन और ऐसा दृढ़ होता है मानों पूर्व से प्राप्त किया हो एवं अभ्यासयुक्त हो ॥१९०३ ।।
लोक-स्वभावं चपलं दुरन्तं, दुःखानि दातुं सकलानि शक्तम् । निरीक्षमाणा न बुधा रमन्ते, भयङ्करं व्याघ्रमिवानिवार्यम् ॥१९०४।।
इति लोकानुप्रेक्षा। अर्थ - जिसको रोकना दुर्निवार ही नहीं किन्तु अशक्य है ऐसे भयंकर व्याघ्र को देखकर जैसे उसमें प्रीति नहीं होती अपितु भय ही उत्पन्न होता है, वैसे ही स्वभाव से चंचल, दुरन्त और सब प्रकार के दुख देने में समर्थ ऐसे लोक को देखने वाले ज्ञानीजन उसमें अनुराग नहीं करते अपितु भयभीत होते हुए वैराग्य धारण कर लेते हैं ॥१९०४॥
इस प्रकार लोकभावना का वर्णन पूर्ण हुआ।
अशुचि भावना अशुभाः सन्ति नि:शेषा:, पुंसां कामार्थ-विग्रहाः ।
शुभोऽत्र केवलं धर्मो, लोकद्वय-सुखप्रदः ।।१९०५ ।। अर्थ - दोनों लोकों में सुख देने वाला मात्र धर्म ही शुभ एवं पवित्र है। कामभोग, धन तथा सब मनुष्यों के शरीर अशुभ हैं ॥१९०५॥