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मरणकण्डिका
इन पर्यायों में इतनी भी शक्ति नहीं होती कि त्रसकाय की प्राप्ति के लिए परिणाम सम्हालने का प्रयत्न कर
सकें ॥ १८८१ ।।
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चित्र - दुःख - महावर्तामिमां संसृति-वाहिनीम् ।
अज्ञान मिलितो जीवो, गाहते पाप-पाथसम् ॥। १८८२ ॥
अर्थ - जिसमें अनेक प्रकार के दुखरूपी महाआवर्त उठ रहे हैं और पापरूपी जलप्रवाह से प्रवाहित हो रही है ऐसी संसाररूपी विशाल एवं भयानक नदी में यह अज्ञानी जीव बहता जा रहा है। अर्थात् उस नदी में डूबा रहता है ।। १८८२ ॥
इन्द्रियार्थाभिलाषारं, चञ्चलं योनिनेमिकम् ।
मिथ्याज्ञान- महातुम्बं दुःख - कीलक- यन्त्रितम् ।। १८८३ ।।
कषाय
- पट्टिकाबद्धं, जरा-मरण-वर्तनम् ।
संसार-चक्रमारुह्य, चिरं भ्राम्यति चेतनः ।। १८८४ ॥
अर्थ - यह संसार रूपी वाहन या चक्र इन्द्रिय विषयों की अभिलाषा रूपी आरों से युक्त है, कुयोनिरूपी नेमि अर्थात् हाल उस पर चढ़ी हुई है, वह मिथ्याज्ञान रूपी महातुम्ब पर स्थित है, दुख रूपी महाकीलों से नियन्त्रित है, कषायरूपी दृढ़ पट्टिका से बद्ध है और जरा तथा मरण रूपी दो पहियों से युक्त है, ऐसे संसार रूपी चक्र पर चढ़कर यह चेतन प्राणी पराधीन हुआ हजारों जन्मरूपी विशाल मार्ग पर चिरकाल से परिभ्रमण कर रहा है ।। १८८३ - १८८४ ॥
वहमानो नरो भारं क्वापि विश्राम्यति ध्रुवम् ।
न देह-भारमादाय, विश्राम्यति कदाचन ।। १८८५ ।।
अर्थ - भारवाही मनुष्य तो किसी क्षेत्र और काल में कभी अपना भार उतार कर विश्राम कर लेता है किन्तु शरीर के भार को ढोने वाले संसारी प्राणी एक क्षण के लिए भी भारमुक्त होकर विश्राम नहीं पाते अर्थात् औदारिक, वैक्रियिक शरीर छूट जाने पर भी कार्मण और तेजस शरीर बराबर बने रहते हैं ।। १८८५ ॥
बम्भ्रमीति चिरंजीवो, मोहान्ध-तमसावृतः ।
संसारे दुःखित-स्वान्तो, विचक्षुरिव कानने ।। १८८६ ॥
अर्थ - जैसे अन्धा व्यक्ति जंगल में भटकते हुए दुखी होता रहता है, वैसे ही संसार रूपी भयावह बन में यह जीव मोहरूपी अन्धकार से आवृत अर्थात् अन्धा होकर चिरकाल तक भटकता रहता है ।। १८८६ ॥
भीतः करोति दुःखेभ्यः, सुख-सङ्गम - लालसः । अज्ञान - तमसाछन्नो, हिंसारम्भादि- ६- पातकम् ।। १८८७ ।। हिंसारम्भादि दोषेण, गृहीत - नव - कल्मषः ।
प्रदह्यते प्रविष्टोऽङ्गी, पावकादिव पावकम् ।। १८८८ ॥