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मरणकण्डिका - ५१५
पुद्गल परिवर्तन का जितना काल है उतना ही काल अर्धपुद्गल परिवर्तन का है। केवलज्ञान का विषय होने से यह भी अनन्त रूप है।
संसार भय प्रदर्शन आकाशे पक्षिणोऽन्योन्यं, स्थले स्थल-विहारिणः।
जले मीनाश्च हिंसन्ति, सर्वत्रापि भयं भवे ।।१८७२ ।। अर्थ - संसार में सर्वत्र भय है, क्योंकि आकाश में उड़ने वाले छोटे पक्षियों को बड़े पक्षी त्रास देते हैं, या समान शक्ति वाले परस्पर में घात करते हैं। स्थल पर विचरण करने वाले हिरण एवं चूहा आदि को सिंह तथा बिल्ली आदि मार कर खा जाते हैं तथा जल में मीन आदि परस्पर में घात करते हैं या एक दूसरे को निगल जाते हैं ॥१८७२ ।।
शयालोर्मुखमभ्येत्य, व्याधारन्धो यथा शशः । मन्वानो विवरं दीनः, प्रयाति यम-मन्दिरम् ।।१८७३ ।। क्षुत्तृष्णादि-महाव्याध-प्रारब्धश्चेतनस्तथा ।
अज्ञो दुःखकर याति, संसार-भुजगाननम् ।।१८७४ ॥ अर्थ - जैसे खरगोश शिकारी (व्याध) द्वारा सताये जाने पर बिल समझकर अजगर के मुख में प्रवेश करता है, वह उस मुख को अपना शरण मानकर मृत्यु के मुख में प्रवेश करता है, वैसे ही ये अज्ञानी जीव भूखप्यास आदि व्याधों के द्वारा पीड़ित होने पर सुखप्राति की आशा से अत्यन्त दुख के निमित्तभूत संसाररूपी अजगर के मुख में प्रवेश करते हैं ।।१८७३-१८७४॥
यावन्ति सन्ति सौख्यानि, लोके सर्वासु योनिषु ।
प्राप्तानि तानि सर्वाणि, बहुबारं शरीरिणा ॥१८७५ ।। अर्थ - लोकगत सब योनियों में जितने प्रकार के सुख हैं, उन सब सुखों को भी इस जीव ने अनन्त बार भोगा है।।१८७५||
अवाप्यानन्तशो दुःखमेकशो लभते यदि।
सुखं तथापि सर्वाणि, तानि लब्धान्यनेकशः॥१८७६ ॥ अर्थ - यह संसार का सुख भी अनन्त बार दुख भोग लेने के बाद कहीं एक बार प्राप्त होता है। अर्थात् अनन्त बार दुख, एक बार सुख, फिर अनन्त बार दुख, एक बार सुख, इस क्रम के कारण दुख भोगने का समय अधिक और सुखमय समय कम होता है। तथापि संसार के जो भी इन्द्रियजन्य सुख हैं उन सभी को भी यह जीव अनेक बार भोग चुका है ।।१८७६ ॥
प्रश्न - संसार के कौन से सुख इस जीव ने अनेक बार भोगे हैं और कौन से ऐसे सुख हैं जो इसे अद्यावधि प्राप्त नहीं हुए?