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मरणकण्डिका - ५१४
प्रश्न - भाव परिवर्तन का विस्तृत स्वरूप क्या है ?
उत्तर - कषाय और योग ये नवीन कर्मबन्ध में कारण हैं। कषाय परिणामों के असंख्यात भेद हैं, इन्हीं को कषाय बन्धाध्यवसाय स्थान कहते हैं। मनोवर्गणा आदि के अवलम्बन से आत्मप्रदेशों में कम्पन होकर कर्मग्रहण की जो शक्ति उत्पन्न होती है उसे योग कहते हैं। इसी के द्वारा जीव नित्य ही कर्मवर्गणाओं को ग्रहण करता रहता है। इस योगस्थान के भी असंख्यात भेद हैं। आत्मा के जो परिणाम कर्मों की स्थिति में कारण हैं उन्हें स्थिति बन्धाध्यवसान स्थान कहते हैं और जो परिणाम अनुभाग में कारण होते हैं उन्हें अनुभाग बन्धाध्यवसाय स्थान कहते हैं।
श्रेणी के असंख्यातवेंभाग प्रमाण योग स्थानों के हो जाने पर एक अनुभाग बन्ध-अध्यवसाय स्थान होता है। असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागबन्धाध्यवसाय स्थानों के हो जाने पर एक स्थितिबन्ध अध्यवसाय स्थान होता है और असंख्यात लोकप्रमाण स्थितिबन्ध अध्यवसाय स्थानों के हो जाने पर एक स्थिति स्थान होता है।
इसी क्रम से ज्ञानावरणादि सर्व मूल प्रकृतियों के एवं उत्तर प्रकृतियों के समस्त स्थानों के पूर्ण हो जाने का नाम भाव-परिवर्तन है। यथा- पंचेन्द्रिय, संज्ञी, पर्याप्तक, मिथ्यादृष्टि कोई जीव अपने योग्य ज्ञानावरण कर्म का सबसे जघन्य अन्तःकोटाकोटिसागर प्रमाण स्थितिबन्ध करता है। उस जीव के उस स्थितिबन्ध के योग्य असंख्यात-लोक प्रमाण कषायाध्यवसाय स्थान होते हैं, उनमें से सबसे जघन्यकषायाध्यवसाय स्थान में निमित्त असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागाध्यवसाय स्थान होते हैं। इस प्रकार सबसे जघन्य स्थिति, सबसे जधन्य कषायअध्यवसाय स्थान और सबसे जघन्य ही अनुभाग स्थान को प्राप्त उस जीव के उसके योग्य सबसे जघन्य एक योगस्थान होता है, फिर उसी स्थिति, उसी कषायस्थान और उसी अनुभाग स्थान को प्राप्त उस जीव के दूसरा योगस्थान होता है, जो पहले से असंख्यात भाग वृद्धियुक्त होता है। इस प्रकार श्रेणी के असंख्यातवेंभाग प्रमाण योगस्थानों के समाप्त हो जाने पर पनः वही स्थिति और उसी कषायाध्यवसाय स्थान को प्राप्त उसी जीव के दूसरा अनुभागाध्यवसाय स्थान होता है। उसके भी योगस्थान पूर्ववत् जानना। इस प्रकार तीसरे आदि असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागाध्यवसाय स्थानों के समाप्त हो जाने पर उसी स्थिति को प्राप्त उसी जीव के द्वारा दूसरा कषायाध्यवसाय स्थान होता है उसके भी अनुभाग अध्यवसायस्थान पूर्ववत् जानना। इस प्रकार तीसरे आदि कषायाध्यवसाय स्थानों के समाप्त होने पर वही जीव एक समय अधिक जघन्य स्थिति को बाँधता है, उसके भी कषायादि स्थान पूर्ववत् जानना । इसी प्रकार एक-एक समय अधिक के क्रम से ज्ञानावरण कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर पूर्ववत् बाँधता है। इसी प्रकार सब मूलकर्मों की सब उत्तर प्रकृतियों की सब स्थितियों को उसी प्रकार से बाँधता है।
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन पाँचों में से प्रत्येक परिवर्तन का काल अनन्त होते हुए भी क्रमश: आगे-आगे इनमें अनन्तगुणा-अनन्तगुणा काल लगता है।
___ मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तकाल प्रमाण वाले इन परिवर्तनों को अनन्तामन्त बार भी कर लेता है। यह पंच परावर्तनों का निरूपण मिथ्यादृष्टि जीव की अपेक्षा ही होता है, क्योंकि जो जीव एक बार भी सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है वह अर्धपुद्गल परिवर्तन काल से अधिक संसार में नहीं रहता, नियमत: मोक्ष चला जाता है। नोकर्म