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मरणकण्डिका - ५०४
उत्तर - जो जिसका अनुपकार करता है उसे विवेकी पुरुष अनर्थकारी ही मानते हैं, अपना सच्चा सहायक कदापि नहीं मानते । उपार्जन एवं रक्षण करने वाले को यह धन महान् दुख देता है। प्राणीगण धन के निमित्त (परस्पर में) एक दूसरे का घात तक कर देते हैं। धनान्ध व्यक्ति धन के अतिरिक्त देव, गुरु, माता-पिता, पत्नी, पुत्र एवं मित्रादि किसी को कुछ नहीं मानता अत: आचार्यों ने धन को महाभयरूप कहा है और जो भयकारी है वह कभी कल्याणकारी नहीं हो सकता | धन की मूर्छा इस जीव को सप्तम नरक तक ले जाती है। इससे अधिक अनर्थकारी और कौन होगा? कोई नहीं।
बन्धन-तुल्यं चरण-सहायं, पश्यति गात्रं मथित-कषायः । यो मुनिवर्यो जन-धन-सङ्गे, तस्य न रागः कृत-हित-भङ्गे॥१८४२।।
इति एकत्वम् । अर्थ - जिन्होंने कषायों का मथन कर दिया है वे मुनिजन अपने शरीर को भी बन्धनरूप मानते हैं। इस शरीर को तो वे मात्र चारित्र-पालन में ही सहायक मानते हैं। इस प्रकार जिन मुनिश्रेष्ठों का स्व शरीर में भी राग नहीं होता उनके हित का नाश करने वाले परिवार में, धन में एवं परिग्रह आदि में क्या राग होगा ? कदापि नहीं होगा। इस प्रकार अपने को सदा एकाकी मानना एकत्व भावना है।।१८४२ ।।
इस प्रकार एकत्व भावना का वर्णन समाप्त ॥
__ अन्यत्व भावना दुःख-व्याकुलितं दृष्ट्वा, किमन्योऽन्येन शोच्यते।
किं नात्मा शोच्यते जन्म-मृत्यु-दुःख-पुरस्कृतः॥१८४३॥ अर्थ - अहो ! महदाश्चर्य है कि इस संसार में मोही प्राणी पति, पुत्रादि अन्य को दुख से व्याकुल देख कर स्वयं शोक करते हैं ? स्वयं की आत्मा जन्म-मरण के और नरकादि गतियों के दुख भोग रही है, उसका शोक क्यों नहीं करते? ||१८४३ ।।
प्रश्न - अन्यत्वानुप्रेक्षा का कथन प्रारम्भ करते ही अन्य के दुख देखकर दुखी क्यों होता है ऐसा प्रसंग क्यों ग्रहण किया गया ?
उत्तर - यह अज्ञानी प्राणी अनादि काल से चारों गतियों में असातावेदनीय कर्मोदय के साथ द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भावरूप सहकारी कारणों के मिलने से निरन्तर शारीरिक, आगन्तुक, मानसिक, स्वाभाविक तथा क्षेत्रजादि अनेक आपदाएँ भोग चुका है, भोग रहा है और 'ये आपदाएँ पुनः मुझे दुख देने हेतु भविष्य में आयेंगी', ऐसा जान रहा है फिर भी अपने दुखों को दूर करने का समीचीन पुरुषार्थ तो नहीं करता अपितु दूसरों को दुख से व्याकुल देख स्वयं शोक करता है, इतना ही नहीं, उनकी आपत्तियों को दूर करने का सतत प्रयत्न करता रहता है, जो कदापि शक्य नहीं है, क्योंकि जिसने पूर्व में मन, वचन, काय से जो कर्मोपार्जित किये हैं उनका फल उसे भोगना ही पड़ेगा। सब इन्द्र, प्रतीन्द्र मिल कर भी उसके आगत कर्मफल का निवारण करने में असमर्थ हैं तब परिवार के शोक करने से उसका निवारण कैसे हो जायेगा? वह सुखी कैसे हो जायेगा? कदापि नहीं। इसलिए