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मरणकण्डिका - ५०५
आचार्यदेव अन्यत्वभावना के प्रारम्भ में ही उसे समझा रहे हैं कि दूसरों का दुख देख कर शोक करना व्यर्थ है। पर का दुख स्वात्मा से या अपने दुख से सर्वथा भिन्न है, उसका निवारण करना भी अशक्य है अत: अन्यत्वभावना के बल से अपना दुख-विनाश करने में प्रयत्नशील रहना ही श्रेयस् है ।
संसारे भ्रममाणानामनन्ते कर्मणाङ्गिनः।
कः कस्यास्ति निजो मूढः, सज्जतेऽत्र जने-जने ॥१८४४॥ अर्थ - पंच परावर्तन रूप संसार में कर्म-वशवर्तिता से परिभ्रमण करते हुए जीवों के कब, कौन, किसका शाश्वत स्वजन हुआ है ? अर्थात् कोई भी अपना मात्र स्वजन नहीं हुआ फिर भी मूढ जन व्यर्थ ही जन-जन में 'यह मेरा है', 'यह मेरा है', ऐसा मानकर आसक्त होता रहता है।।१८४४।।
प्रश्न - माता-पिता आदि बन्धुजन 'स्वजन' ही कहे जाते हैं। यह जगत्प्रसिद्ध बात है, इसका यहाँ निषेध क्यों किया जा रहा है ?
उत्तर - यह जगत्प्रसिद्ध बात मात्र एक पर्याय को दृष्टिगत रखकर कही जाती है और यह मेरा पिता, पुत्र, भाई, मामा, दास, सेवक एवं स्वामी है, इस प्रकार की मान्यता या आसक्ति केवल मोहाधीन जीवों के ही होती है। किसी के प्रति दया एवं श्रीति तथा किता के प्रति निर्दयता एवं अप्रीतिरूप असमान व्यवहार मिथ्यात्वादि परिणामों से ही उत्पन्न होते हैं किन्तु जो सदा अन्यत्व भावना का चिन्तन करते हैं, जो राग-द्वेष रहित हैं तथा जिनका चारित्र सर्वत्र एकरूप रहता है उनका न कोई स्वजन होता है और न परिजन होता है, क्योंकि वस्तुतत्त्व तो मात्र अनन्यतारूप है उसमें कोई स्वजन है ही नहीं।
प्रकारान्तर से स्वजन-परिजन के भेद का अभाव कालेऽतीतेऽभवत्सर्वः, सर्वस्यापि निजो जनः ।
तथा कर्मानुभावेन, भविष्यति भविष्यति ।।१८४५ ।। अर्थ - अतीत काल में सभी प्राणियों के अनन्तानन्त सभी प्राणी स्वजन थे। अर्थात् सब जीवों की सब जीवों के साथ आत्मीयता बन चुकी है कोई जीव शेष नहीं रहा और कर्मोदय से भविष्य काल में भी सब जीवों के सब जीव स्वजन होंगे॥१८४५॥
प्रश्न - इस श्लोक द्वारा क्या कहा गया है ?
उत्तर - इस श्लोक में यह कहा गया है कि अतीत काल में सभी जीव एक दूसरे के स्वजन बन चुके हैं और भविष्य में भी जब तक मोक्षप्राप्ति नहीं होती तब तक कर्मोदयसे जन्म-मरण करते हुए पुन: सबके सब जीव स्वजन बनेंगे। इस प्रकार जब सभी जीव स्वजन हैं तब “यही मेरा स्वजन है" इस प्रकार का संकल्प मिथ्या है। वे मुझ से अन्य हैं और मैं भी उनसे सर्वथा अन्य हूँ' इस स्व-परविषयक अन्यत्व तत्त्व का चिन्तन करना ही श्रेयस्कर है।
सङ्गमोऽस्ति शकुन्तानां रात्रौ-रात्रौ तरौ-तरौ। तथा-तथा तनूभाजां, जाती-जाती भवे-भवे ॥१८४६ ।।