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मरणकण्डिका - ५०६
अर्थ - जैसे प्रत्येक रात्रि में वृक्ष-वृक्ष पर पक्षियों का समागम होता है वैसे ही संसारी जीवों का जातिजाति अर्थात् योनियों के माध्यम से भव-भव में परिवार जनों का समागम होता रहता है ॥१८४६॥
प्रश्न - इस दृष्टान्त-दाष्टन्ति से क्या सिद्ध किया जा रहा है ?
उत्तर - इस श्लोक का यह अभिप्राय है कि जैसे रात्रि में आश्रय बिना रहने में असमर्थ पक्षीगण योग्य वृक्ष को देख कर बसेरा कर लेते हैं और प्रातः उस वृक्ष को छोड़ देते हैं; रात्रि होते पुनः किसी वृक्ष का आश्रय ग्रहण कर लेते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक संसारी प्राणी वर्तमान पर्याय में आयु कर्म के पुद्गल स्कन्ध पूर्ण रूप से गल जाने पर उस शरीर का आश्रय छोड़ देते हैं। बिना आश्रय रह नहीं सकते अत: नवीन शरीर ग्रहण करना चाहते हैं, तब वे कर्मोदय से प्रेरित होकर शरीरग्रहण के योग्य किसी एक योनि में जाते हैं, वहाँ उन्हें जिनके अत्यन्त अपवित्र रज-वीर्य का आश्रय प्राप्त होता है उनमें माता-पिता का संकल्प कर लेते हैं और उन्हीं माता-पिता के रज-वीर्य का अन्य जो-जो प्राणी आश्रय लेते हैं, उनमें भाई-बहिन का संकल्प कर लेते हैं। वहाँ की आयु पूर्ण होते फिर किसी अन्य योनि का आश्रय ग्रहण कर लेते हैं, यही क्रम अनादि काल से चल रहा है क्योंकि जैसे वन में पक्षियों के निवासयोग्य वृक्ष सुलभ हैं वैसे ही संसारी प्राणियों को स्वजन-वास भी सुलभ है।
अध्वनीना इवैकत्र, प्राण्य सङ्ग ततोऽङ्गिनः।
स्थान निबं मिधान्ति, हित्वा कर्म-वशीकृताः ॥१८४७॥ अर्थ - जैसे किसी नगर या ग्राम की धर्मशाला में अथवा किसी वृक्ष की छाया में पथिकजन एकत्र होते हैं और वहाँ अपना भोजन-पानादि का व्यवहार भी करते हैं, पश्चात् वे सब उस धर्मशाला को छोड़कर अपने-अपने देश चले जाते हैं; उसी प्रकार सभी बन्धु-बांधवों का समागम होकर वे अपने-अपने कर्मानुसार प्राप्त हुई गतियों में चले जाते हैं अर्थात् बिछुड़ जाते हैं ।।१८४७ ॥
नाना-प्रकृतिके लोके, कस्य कस्तत्त्वतः प्रियः।
कार्यमुद्दिश्य सम्बन्धो, वालुका-मुष्टि-वज्जनः ।।१८४८ ।। अर्थ - जैसे बालूरेत स्वभावत: तो कण-कणरूप अर्थात् भिन्न-भिन्न ही होती है, जलादि के सम्पर्क से कदाचित् मुट्टी रूप बँध जाती है किन्तु जल सूखते ही पुन: बिखर जाती है। वैसे ही इस लोक में नाना स्वभाव वाले मनुष्य हैं। ऐसे नाना स्वभाव-वालों में स्वभावत: अर्थात् स्वभाव से कौन किसको प्रिय है? क्योंकि मित्रता तो समान शील वालों में ही होती है और सब बन्धु-बांधव समान शील वाले होते नहीं हैं तब कैसे वह उनका बन्धु हो सकता है ? अपने-अपने कार्य का उद्देश्य लेकर ही सम्बन्ध स्थापित होते हैं और उद्देश्य पूर्ण हो जाने पर सम्बन्ध नष्ट हो जाते हैं।।१८४८ ॥
माता पोषयते पुत्रमाधारोऽयं भविष्यति ।
मातरं पोषयत्येष, गर्भेऽहं विधृतोऽनया ।।१८४९ ॥ अर्थ - वृद्धावस्था में यह पुत्र मेरा आधार होगा, इस भावना से माता पुत्र का पालन करती है और इस माता ने मुझे गर्भ में धारण किया था, यह सोचकर पुत्र माता का पालन करता है।।१८४९ ॥