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मरणकण्डिका - ५०२
एकाकी म्रियते जीवो, न द्वितीयोऽस्य कञ्चन ।
सहाया भोग-सेवायां, न कर्मफल-सेवने ॥१८३५॥ अर्थ - (जैसे जीव स्वोपार्जित कर्मफल स्वयं ही भोगता है वैसे ही) अपनी आयु समाप्त होते जीव अकेला ही मरता है। अर्थात् परिवार का कोई भी सदस्य उसके मरण में भागीदार नहीं होता। मनोहर वस्त्राभरण एवं भोजनादि भोगों को भोगने में तो परिवार का प्रत्येक सदस्य सहायक या भागीदार होता है किन्तु भोग-सामग्री एकत्र करने में जो पापोपार्जन किया है उन कर्मों का फल भोगने में कोई भागीदार या सहायक नहीं होता ||१८३५ ।।
प्रकारान्तर से एकत्व भावना देहार्थ-बान्धवाः सार्धं, न केनापि भवान्तरम् । वल्लभा अपि गच्छन्ति, कुर्वन्तोऽपि महादरम् ।।१८३६ ॥ स्वकीया देहिनोऽत्रैव, देहार्थ-स्वजनादयः।
स्वीकृताः सम्भ्रमेणापि, न कदाचिद् भवान्तरे ॥१८३७ ।। अई .. शरीर, '
क प्रिय बा-अब जन यद्यपि मरणासन्न अपने स्वजन का महान् आदर करते हैं, वे अत्यन्त प्रिय भी हैं किन्तु कोई भवान्तर अर्थात् परलोक में साथ नहीं जाते। मरणासन्न व्यक्ति भी अपने शरीर, धन एवं स्वजनादि को साथ ले जाने के लिए अत्यन्त उत्कण्ठित है तो भी वे सब इसी लोक में रह जाते हैं, चाहते हुए भी वह पुरुष उन्हें साथ नहीं ले जा सकता, उसे सब कुछ छोड़ कर अकेले ही जाना पड़ता है।।१८३६१८३७॥
स्वकीयं परकीयं न, विद्यते भुवनम्रये।
नैकस्याटाट्यमानस्य, परमाणोरिवाशिनः ॥१८३८ ॥ अर्थ - जैसे पुद्गल रूप परमाणु अन्य परमाणु या स्कन्ध आदि के सम्बन्ध बिना तीन लोक में सर्वत्र अकेला ही घूमता है, वैसे ही तीन लोक में एकाकी परिभ्रमण करते हुए इस जीव के अपना या पराया कोई भी नहीं है, यह जीव अकेला ही है। ये मेरे हैं,' अथवा 'मेरे साथ ही जावेंगे' ऐसी आशा रखना यह अज्ञानता का ही फल है।।१८३८।।
जीव का सच्चा सहायक भवान्तरं समं गत्वा, धर्मो रत्नत्रयात्मकः ।
उपकारं परं नित्यं, पितेव कुरुतेऽङ्गिनः॥१८३९ ॥ अर्थ - जैसे पिता सदैव पुत्र का उपकार करता है, वैसे ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय धर्म सदैव जीव का परमोपकार करता है। इतना ही नहीं यह धर्म जीव के साथ परलोक में भी जाता है।।१८३९ ।।
प्रश्न - धर्म किसे कहते हैं, यह जीव का क्या उपकार करता है और असहाय भावना के अधिकार में इस सहाय रूप धर्म के कथन का क्या औचित्य है ?