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मरणर्काण्डका - ५००
उसे मंत्र कहते हैं। आत्मा की शक्ति विशेष को वीर्य एवं आहार तथा व्यायाम आदि से उत्पन्न शरीर की दृढ़ता को बल कहते हैं।
केनेहोदीयमानानां, कर्मणां ज्योतिषामिव ।
निषेधः शक्यते कर्तु, स्वकीये समये सति ॥१८२६ ।। अर्थ - जैसे आकाश में उदय होते हुए सूर्य, चन्द्र एवं नक्षत्रादि को कोई रोक नहीं सकता, वैसे ही द्रव्य, क्षेत्रादि सहकारी कारणों के मिल जाने पर उदय में आते हुए कर्मों को इस जगत् में कोई भी नहीं रोक सकता॥१८२६ ॥
प्रतीकारोऽस्ति रोगाणां, कर्मणां न पुनर्जने ।
कर्म मृद्गाति हस्तीव, लोकं मत्तो निरङ्कुशः ।।१८२७ ।। अर्थ - मनुष्यों के पास रोगों के प्रतिकार हेतु औषधि आदि तो हैं किन्तु उदयागत कर्मों को रोकने का कोई प्रतिकार नहीं है। जैसे निरंकुश मदोन्मत्त हाथी लोगों को या कमलिनी के वन को नष्ट कर देता है, वैसे ही कर्म सभी संसारी जीवों को मसल रहा है॥१८२७ ।।
प्रतीकारो न रोगाणां, कर्मणामुदये सति।
उपचारो ध्रुवं तेषामस्ति कर्म-शमे सति ॥१८२८ ।। अर्थ - असातावेदनीय कर्म का उदय होने पर रोगों का प्रतिकार नहीं हो पाता। औषध एवं पथ्यादि से जो रोग शमन होते हैं वे भी कर्मों का उपशम होने पर ही होते हैं। अर्थात् कर्म का उपशम न होने पर औषधि आदि लाभकारी नहीं होती ।।१८२८!।
बल-केशव-चक्रश-देव-विद्याधरादयः।
सन्ति कर्मोदये व्यक्तं, शरणं न शरीरिणाम् ।।१८२९ ॥ अर्थ - जीवों के कर्मों का तीव्र उदय आने पर बलदेव, नारायण, चक्रवर्ती, विद्याधर एवं देव भी शरण नहीं होते। यह स्पष्ट ही है।।१८२९ ।।
गच्छन्नुल्लङ्घते क्षोणी, नरस्तरति नीरधिम् ।
नातिक्रान्तुं पुनः कोऽपि, कर्मणामुदयं क्षमः ॥१८३०॥ अर्थ - चलता हुआ प्राणी भूमि को लांघ सकता है और समुद्र को भी भुजाओं से पार कर सकता है किन्तु उदयागत कर्म के फल का उल्लंघन करने में कोई महाबली भी समर्थ नहीं है अर्थात उदयागत कर्म का फल सभी को भोगना ही पड़ता है॥१८३०॥
मृग-मीनौ परौ जन्त्वोः , सिंह-मीन-गृहीतयोः ।
जायते रक्षकः कोऽपि, कर्म-ग्रस्तस्य नो पुनः ॥१८३१॥ अर्थ - सिंह द्वारा पकड़े हुए हिरण का कोई अन्य पशु सम्भवत: रक्षक हो सकता है, तथा तिमिंगल