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मरणकण्डिका ५०१
आदि महामत्स्य आदि के द्वारा पकड़ी हुई छोटी-छोटी मछलियों का भी कथंचित् कोई रक्षक हो सकता है किन्तु उदयागत कर्मग्रस्त जीव का कोई भी रक्षक नहीं है ।। १८३१ ।।
जीव के शरणभूत पदार्थ कौनसे हैं ?
कर्म - नाशनसहान जनानां ज्ञान दर्शन- चरित्र तपांसि ।
नापहाय सति कर्मणि पक्वे, रक्षकानि खलु संति पराणि ।। १८३२ ।।
इति अशरणम् ।।
अर्थ - भव्य जीवों के लिए यदि कोई सच्चे शरणभूत हैं तो अपने-अपने दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं तप ही हैं। ये दर्शन - ज्ञानादि ही दुखदाई कर्मों का नाश करने में समर्थ हैं। दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चार आराधनाओं के अतिरिक्त अन्य कोई पदार्थ उदयागत कर्म से ग्रसित जीव का रक्षक या सहायक या शरणभूत नहीं हो सकता। ऐसा दृढ़ निश्चय करना चाहिए ।। १८३२ ।।
इस प्रकार अशरण भावना पूर्ण हुई ॥ २ ॥ एकत्व भावना
करोति पातकं जन्तुर्देह-बान्धव-हेतवे ।
श्वभ्रादिषु पुनर्दुःखमेकाकी सहते चिरम् ।। १८३३ ॥
अर्थ - यह मोही प्राणी अपने शरीर के एवं बन्धु-बान्धवों के पोषणार्थ पाप करता है किन्तु नरकादि दुर्गतियों में चिरकाल पर्यन्त दुख अकेले ही भोगता है, वहाँ कोई भी बन्धुजन दुख भोगने में साथी नहीं होते हैं ।। १८३३ ।।
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वेदनां कर्मणा दत्तां, रोग-शोक-भयादिकाम् ।
किं भुञ्जानस्य कुर्वन्ति, पश्यन्त्यो ज्ञातयोऽङ्गिनः ।। १८३४ ।।
अर्थ - अपने मन, वचन एवं काय योग से संचित कर्म, परिपाक काल में रोग, शोक एवं भयादि रूप फल देते हैं, जिसे परिवारजन प्रत्यक्ष देखते हुए भी क्या उसमें पाँती बाँटते हैं ? नहीं। वह वेदना अकेले उसी को भोगनी पड़ती है ॥ १८३४ ॥
प्रश्न
इस श्लोक का तात्पर्य क्या है ?
उत्तर
इसका अर्थ है कि जीव परिवारादि के भरण-पोषण हेतु जो पापोपार्जित करता है, नरक में उसका फल भोगते हुए उसका परिवार उसे प्रत्यक्ष नहीं देख पाता अतः उसमें पाँती कैसे बाँटे या प्रतिकार कैसे करे ? क्योंकि वहाँ उसका परिवार साथ में नहीं है, इसलिए वे कुछ नहीं कर सकते, जीव को स्वयमेव सारे दुख अकेले ही भोगने पड़ते हैं। इस पर आचार्यदेव श्लोक १८३४ में कहते हैं कि भाई ! मनुष्य पर्याय में तो सारे परिवार जन अपने स्त्री- पुत्रादि की वेदना प्रत्यक्ष देख रहे हैं, किन्तु क्या वे उसके भागीदार बन सकते हैं ? या तत्काल उसे वेदनादि से मुक्त कर सकते हैं ? नहीं, कदापि नहीं। क्योंकि स्वोपार्जित कर्मों का फल शुभ हो या अशुभ एकाकी ही भोगना पड़ता है।