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मरणकण्डिका - ४९९
जन्म - मृत्यु-जरातंके, दुःख-शोक- भयादिके ।
दीयमाने विपक्षेण, निरुपक्रम - कर्मणा ।। १८२० ।।
न कोऽपि विद्यते त्राणं, देहिनो भुवनत्रये ।
न प्रविष्टोऽपि पातालं, मुच्यते कर्मणा जनः ।। १८२१ ।।
अर्थ - जिसका कोई प्रतिकार नहीं है ऐसे निधत्ति आदि विपक्षी सदृश कर्म का उदय आने पर जन्म, मरण, बुढ़ापा, रोग, शोक, दुख एवं भयादि दुख भोगने ही पड़ते हैं। ऐसी अवस्था में तीनों लोकों के अन्तर्गत इस जीव का कोई भी रक्षक नहीं होता जिसकी वह शरण ग्रहण करे। स्वोपार्जित कर्मोदय में पाताल में प्रविष्ट कर जाने पर भी उन कर्मों से छुटकारा नहीं हो सकता । १४१०-१८१९ ।।
नग - दुर्गे क्षितौ शैले, लोकान्ते काननेऽम्बुधौ ।
गतोऽपि कर्मणा जीवो, नोदीर्णेन विमुच्यते ।। १८२२ ।।
अर्थ - पहाड़ की गुफा, दुर्ग, भूमि, शिला, वन, समुद्र, यहाँ तक कि लोक के अन्त पर्यन्त चले जाने पर भी जीव, उदीरणा को प्राप्त हुए कर्म से नहीं छोड़ा जाता अर्थात् इन स्थानों पर भी कर्म अपना फल अवश्य देता है ।। १८२२ ।।
द्वि-चतुर्बाहु - पादा ये, ते गच्छन्ति महीतले ।
जले मीनाः खगा व्योम्नि, कर्म सर्वत्र सर्वदा ।।१८२३ ।।
अर्थ- दो पाये अर्थात् स्त्री-पुरुष आदि, चौपाये अर्थात् गाय, घोड़ा, बैल एवं सिंह आदि पशु एवं अनेक पैर वाले सर्प आदि तो भूमि पर ही आते-जाते हैं, मगरमच्छ एवं मछली आदि जल में जाते-आते हैं और पक्षी आकाश तक जाते हैं किन्तु यह कर्म तो सर्वत्र पहुँचता है अर्थात् इसकी गति अबाधरूप से सर्वत्र है ।। १८२३ ॥
अगम्या विषयाः सन्ति, रवि चन्द्रानिलामरैः ।
प्रदेशी विद्यते कोऽपि नागम्यः कर्मणा पुनः ॥ १८२४ ॥
अर्थ 1- इस जगत् में कुछ ऐसे प्रदेश भी हैं जो सूर्य, चन्द्र, पवन एवं देवों द्वारा भी अगम्य हैं अर्थात् वहाँ ये सूर्यादि नहीं जा सकते, किन्तु कोई भी ऐसा प्रदेश नहीं है जहाँ कर्म की गति न हो ॥ १८२४ ॥ न योधा रथ- हस्ताश्वा, विद्या - मन्त्रौषधादयः ।
सामादयोऽपि चोपायाः, पान्ति कर्मोदयेङ्गिनाम् ।। १८२५ ।।
अर्थ - कर्म सर्वाधिक बलवान है। इसका उदय होने पर योधा, रथ, हाथी, घोड़ा, विद्या, मन्त्र, औषधि आदि एवं साम, दाम, दण्ड एवं भेदादि कोई भी उपाय शरणभूत नहीं होते हैं ।। १८२५ ।।
प्रश्न- विद्या, मन्त्र, वीर्य एवं बल किसे कहते हैं?
उत्तर - जिसके अन्त में स्वाहा होता है उसे विद्या कहते हैं। जिसके अन्त में स्वाहाकार नहीं होता,