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मरणकण्डिका -४९४
अनित्य भावना का विस्तृत विवेचन डिण्डीर-पिण्ड-वल्लोकः, सकलोऽपि विलीयते।
समस्ताःसम्पदश्चात्र, स्वप्न-भूति-समागमाः॥१८०२॥ अर्थ - यह सम्पूर्ण लोक डिंडीरपिंड अर्थात् समुद्र के झाग सदृश नष्टस्वभावी है एवं धन-वैभवरूप समस्त सम्पदाएँ स्वप्न में प्राप्त सम्पदाओं के सदृश क्षणभंगुर हैं ।।१८०२॥
प्रश्न - सर्व सम्पदाएँ लोक में अन्तर्निहित हैं अत: लोक की अनित्यता से ही सर्व सम्पदाओं की अनित्यता सिद्ध हो जाती है फिर यहाँ उन्हें अलग से बिनाशीक कहने का क्या प्रयोजन है ? ।
उत्तर - समुदाय, अवयवात्मक ही होता है, अतः अवयवों की अनित्यता के बिना समुदाय की अनित्यता का ज्ञान सुखपूर्वक नहीं हो पाता, इसलिए उन्हें अलग कहा गया है।
दृष्ट-नष्टानि सौख्यानि, स्फुरितानीव विद्युताम् ।
बुद्बुदा इव नि:शेषा, नश्वराः सन्ति गोचराः ।।१८०३ ।। अर्थ - इन्द्रियजन्य सर्व इष्ट सुख विद्युत् प्रकाश सदृश नष्ट होने वाले हैं और प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले स्थान एवं उच्च पद आदि भी जल के बुलबुले के समान नश्वर हैं ॥१८०३ ।।
प्रश्न -- यहाँ इन्द्रियसुख, स्थान एवं पद आदि को विनाशी कहने का क्या प्रयोजन है ?
उत्तर - आत्मा नि:संगस्वभावी है और अपने आत्मोत्थ सुख से लबालब परिपूर्ण अर्थात् भरा है, किन्तु इस अपने सहज सुख स्वभाव की श्रद्धा से रहित मिथ्यादृष्टिजीव अनादिकाल से इन्द्रियसुख के लम्पटी हैं। इन्द्रियसुख बाह्य सामग्री अर्थात् द्रव्य के एवं इन्द्रियों के अधीन है। इनमें भी इन्द्रिय सुखों का मूल 'द्रव्य' है।
है कि कभी-कभी यह प्राणी द्रव्यप्राप्ति की अभिलाषा में अधवा इन्द्रिय सख की आसक्ति में अपने प्राणों की भी बाजी लगा देता है तथा सुख-लम्पटी मनुष्य सैकड़ों वज्रपातों के पतन से होने वाले कष्टों को सहन करता है। इन क्षणभंगुर सुखों से एवं इस सुख के मूल धनादि रूप द्रव्यों से विमुख होने के उपाय दर्शाने हेतु आचार्यदेव ने इन्द्रियसुखों को विद्युत् प्रकाश सदृश क्षणक्षयी एवं द्रव्यों को सर्वथा अनित्य कहा है।
जीव के आश्रयभूत राष्ट्र, देश, नगर, ग्राम एवं गृह भवनादि को स्थान कहते हैं, तथा इन्द्रपद, चक्रवर्ती पद, राष्ट्रपति पद, मंत्री पद इत्यादि पद हैं। "यह मेरा स्थान है क्योंकि मैं यहाँ रहता हूँ" और मैं चक्रवर्ती हूँ, नारायण हूँ, मंत्री हूँ, वकील हूँ, डॉक्टर हूँ, सरपंच हूँ, प्रधान हूँ, पुरुष हूँ अथवा पति हूँ, इस प्रकार के संकल्पों द्वारा इन स्थानों को और पदों को नित्य मानकर अभिमानादि करता है, किन्तु अनित्य स्वभावी होने से जब ये नष्ट हो जाते हैं तब अत्यन्त संक्लेशित होकर दुष्ट कर्मों का बन्ध करता है अत: आचार्य इन्हें जल के बुलबुले सदृश अध्रुव कहकर सन्मार्ग दर्शन करा रहे हैं।
नानादेशागताः पान्था, नौगता इव बान्धवाः ।
गत्वरा आश्रयाः सर्वे, शारदा इव नीरदाः ।।१८०४।। अर्थ - नदी से पार होने के लिए नाना देशों से आकर एक नाव में बैठने वाले पथिक जनों के समान