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मरणकण्डिका - ४९२
प्रदेशी भी होते हैं तथा आकाश द्रव्य अनन्त प्रदेशी है। काल, द्रव्य तो है किन्तु बहुत प्रदेशी नहीं है । कालद्रव्य असंख्यात हैं किन्तु प्रत्येक कालाणु एक-एक प्रदेश वाला ही है। इस प्रकार द्रव्य छह हैं।
जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। इनमें से जीव तत्त्व, जीव द्रव्य में और अजीव तत्त्व पुद्गलादि पाँच अजीव द्रव्यों में अन्तर्निहित हो जाता है। जीव एवं अजीब के संयोग-वियोग से निर्मित शेष बन्धादि तत्त्व भी जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य में ही अन्तलीन हो जाते हैं अतः भिन्न रूप से नहीं कहे गये हैं।
अपाय विचय धर्मध्यान का लक्षण
कल्याण प्रापकान्तिनीयो जिनागमे ।
शुभाशुभ - विकल्पानामपायः कर्मणां परम् ।। १७९८ ।।
अर्थ - जिनागम में कल्याण अर्थात् सुखप्राप्ति के जो उपाय दर्शाये गये हैं, उनका चिन्तन करना, अथवा शुभ-अशुभ कर्मों का अभाव कैसे हो या इनसे कैसे छूटे, ऐसा चिन्तन करना, अपाय विचय धर्मध्यान है ।। १७९८ ।।
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प्रश्न कल्याण का क्या अर्थ है और वह कितने प्रकार का होता है तथा शुभाशुभ कर्मों के अपाय का चिन्तन करने से क्या लाभ है ?
उत्तर - कल्याण का अर्थ है सुख । निःश्रेयस् एवं अभ्युदय के भेद से यह सुख दो प्रकार का है। मोक्षसुख निःश्रेय और देव-मनुष्यों के सुख को अभ्युदय सुख कहते हैं। शुभ-अशुभ कर्मों का बन्ध इष्टानिष्ट कल्पना से होता है। यही कल्पना रागद्वेष की जनक है और रागद्वेष संसार परिभ्रमण का मूल कारण है, इनसे एवं मिथ्यात्व असंयमादि से छूटने का तथा तीर्थंकर पद देने वाली दर्शनविशुद्धि आदि भावनाओं का, सम्यक्त्व पुष्ट करने वाले नि:शंकित आदि अंगों का और निःश्रेयस् सुख के कारणभूत रत्नत्रय की प्राप्ति के उपायों का चिंतन करना अपायवित्रय धर्मध्यान है । इस ध्यान से आत्मा सुखस्थानों को प्राप्त हो जाता |
विपाकविचय धर्मध्यान का लक्षण
एकानेक-भवोपात्त पुण्य-पापात्म-कर्मणाम् ।
उदयोदीरणादीनि चिन्तनीयानि श्रीमताम् ।। १७९९ ।।
अर्थ- बुद्धिमानों को जीवों के एक भव या अनेक भव सम्बन्धी पुण्यकर्म एवं पापकर्म के फल, उदय, उदीरणा, संक्रमण, बन्ध एवं सत्त्व आदि का विचार करना चाहिए। ऐसा चिन्तन ही विपाकविचय धर्मध्यान कहा जाता है ।। १७९९ ।।
प्रश्न- पुण्य-पाप कर्म के एवं उदय उदीरणादि के क्या लक्षण हैं ?
उत्तर - जिन कर्मों के उदय से देवगति आदि के सुख प्राप्त होते हैं उन्हें पुण्यकर्म और जिन कर्मों के उदय से नरकादि गतियों के दुख प्राप्त होते हैं उन्हें पापकर्म कहते हैं। इन कर्मों की दस अवस्थाएँ होती हैं। यथाबन्ध, सत्त्व, उदय, उदीरणा, संक्रमण, उपशम, अपकर्षण, उत्कर्षण, निधत्ति और निकाचित ।