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परणकण्डिका - ४१३
बन्ध - द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भावों के आश्रय से कार्मण वर्गणारूप विस्रसोपचयों का दूध-पानी सदृश आत्मप्रदेशों से मिल जाना बंध है।
सत्त्व - कर्मबन्ध से उदय आने के पूर्व समय पर्यन्त कर्मों का आत्मा के साथ स्थित रहना सत्त्व है।
उदय - द्रव्य-क्षेत्रादि के आश्रय से योग्य काल में क्रम से कर्मों का अनुभवन होना अथवा फल देना उदय है।
उदीरणा - असमय में अक्रम से कर्मों का फल देना उदीरणा है। अथवा जो कर्म उदय में नहीं आ रहा है, उसकी स्थिति को बलपूर्वक घटाकर कर्म को उदय में लाना उदीरणा है।
संक्रमण - एक कर्मप्रकृति का अपनी सजातीय अन्य प्रकृतिरूप बदलना संक्रमण है। उपशम - कारणविशेष से कर्म की उदीरणा न हो सकना, उन्हें कुछ समय तक दबा कर रखना उपशम
अपकर्षण - कर्मों की स्थिति को घटा देना अपकर्षण है। उत्कर्षण - कर्मों की स्थिति में वृद्धि हो जाना उत्कर्षण है। निधत्ति - जिन कर्मों में उदीरणा और संक्रमण न हो सके वह कर्म निधत्ति है।
निकाचित - जिस कर्मप्रकृति में उदीरणा, संक्रमण, अपकर्षण एवं उत्कर्षण ये चारों न हो सकें वह कर्मप्रकृति निकाचित है। इस प्रकार कर्मों की नाना अवस्था विशेषों का चिन्तन करना विपाकविचय धर्मध्यान है।
संस्थान विचय धर्मध्यान का लक्षण ऊर्ध्वाधः सत्रिलोकस्था, द्रव्य-पर्याय-संस्थितीः ।
विचिन्तयत्यनुप्रेक्षास्तत्रैवानुगतो यतिः ।।१८०० ।। अर्थ - द्रव्य-पर्यायों से खचित तथा क्रमश: वेत्रासन, झल्लरी एवं मृदंग सदृश अधोलोक, मध्यलोक एवं ऊर्ध्वलोक का चिन्तन करना संस्थान विचय धर्मध्यान है। इस ध्यान में स्थित मुनिजन बारह भावनाओं का भी चिन्तन करते हैं। अर्थात् बारह-भावनाओं का चिन्तन करना भी संस्थान विचय धर्मध्यान है।।१८०० ॥
बारह भावनाओं के नाम अध्रुवाशरणैकान्य-जन्म-लोक-विसूचिकाः।
आस्रवः संवरशिन्त्यो, निर्जरा-धर्म-बोधयः ॥१८०१ ।। अर्थ - अध्रुव, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचि, आम्रव, संवर, निर्जरा, धर्म एवं बोधि इन बारह भावनाओं का भी चिन्तन करना चाहिए ।।१८०१॥
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