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मरणकण्डिका- ४९१
ध्यान के अवलम्बन
वाचना-पृच्छनाम्नायानुप्रेक्षा- धर्मदेशनाः ।
भवत्यालम्बनं साधोर्धर्मध्यानं चिकीर्षतः ।। १७९६ ।।
अर्थ - धर्मध्यान के इच्छुक साधु को वाचना, पृच्छना, आम्नाय, अनुप्रेक्षा एवं धर्मोपदेश ये पाँच प्रकार के स्वाध्याय अवलम्बनभूत हैं अर्थात् इन स्वाध्यायरूप तप के माध्यम से ही धर्मध्यान की सिद्धि सम्भव
है ॥ १७९६ ॥
हैं ?
प्रश्न- वाचनादि स्वाध्याय के क्या लक्षण हैं तथा ये धर्मध्यान की सिद्धि में किस प्रकार सहायक होते
उत्तर - सर्वज्ञप्रणीत एवं संसारभीरु दिगम्बराचार्यों द्वारा रचित शास्त्रों का स्वाध्याय करना वाचना है। आगमकथित विषय में शंका उत्पन्न हो जाने पर अथवा ज्ञात तत्त्व की श्रद्धा दृढ़ करने हेतु प्रश्नात्मक चर्चा करना पृच्छना है | गाथा, श्लोक एवं सूत्रादि कण्ठस्थ करने हेतु पुनः पुनः घोष करना आम्नाय है, वस्तु के अनित्यादि स्वभाव का चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। सब अनुप्रेक्षाएँ एक समय में एकाश्रयरूप से रह सकती हैं अतः ये भी धर्मध्यान के अनुकूल हैं। धर्मध्यान में अन्तर्भूत होने से अनुप्रेक्षा शब्द यहाँ बीज स्वरूप है। आगे इसका विस्तृत विवेचन आचार्य स्वयं करेंगे। भव्य जीवों को हित का अर्थात् धर्म का उपदेश देना धर्मोपदेश नामक स्वाध्याय तप है।
जब तक वाचना एवं पृच्छनादि रूप स्वाध्याय नहीं किया जावेगा तब तक धर्मध्यान की ध्येयरूप वस्तुओं का अर्थात् पंचास्तिकाय, छह द्रव्य एवं षट्काय जीवसमूह का ज्ञान या निर्णय नहीं हो सकता और निर्णय बिना, ध्येय वस्तु पर मन की एकाग्रता रूप ध्यान नहीं हो सकता अतः वाचनादि स्वाध्याय को धर्मध्यान का अवलम्बन कहा है।
आज्ञा-विचय धर्मध्यान का स्वरूप
पञ्चास्तिकाय - षट्काय-काल- द्रव्याणि यत्नतः ।
आज्ञा- ग्राहयाणि दक्षेण, विचार्याणि जिनाज्ञया ।। १७९७ ।।
अर्थ - जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय एवं आकाशास्तिकाय, इन पाँच अस्तिकाय द्रव्यों को, पाँच स्थावर काय और व्रसकाय इन छह जीव निकायों को, काल द्रव्य को, तथा अन्य कर्मबन्ध, उदय तथा उसके फलभेदों को, अन्य और भी अतीन्द्रिय पदार्थों को जिनाशानुसार जो दक्ष पुरुष अपने चिन्तन का विषय बनाते हैं उसे आज्ञाविचय धर्मध्यान कहते हैं ॥ १७९७ ॥
प्रश्न- अस्तिकाय किसे कहते हैं और यहाँ सात तत्त्व ग्रहण क्यों नहीं किये गये हैं ?
उत्तर - अस्तिकाय में 'अस्ति' शब्द का अर्थ है विद्यमान अर्थात् 'है', और 'काय' शब्द का अर्थ है बहुत अर्थात् जो द्रव्य बहुतप्रदेशी हैं, उन्हें अस्तिकाय कहते हैं। एक जीव द्रव्य, धर्म द्रव्य, अधर्मद्रव्य और लोकाकाश ये असंख्यात प्रदेशी हैं, पुद्गलों में कोई संख्यात प्रदेशी, कोई असंख्यात प्रदेशी और कोई अनन्त