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मरणकण्डिका - ४९५
जीव के आश्रयभूत पिता, पति, पुत्र अथवा स्वामी, नौकर, सेवकादि सभी बान्धव एवं आश्रित जन शरद् ऋतु के मेघ सदृश अस्थिर अर्थात् नश्वर हैं ।।१८०४ ।।
प्रश्न - बन्धुजनों को एवं आश्रयभूत स्वामी आदि को अनित्य कहने का क्या कारण है ?
उत्तर - जैसे नाव में बैठे हुए सब पथिक सदा, एक साथ, नाव में बैठे नहीं रह सकते, वैसे ही एक परिवार में रहने वाले पिता-पुत्र, स्त्री आदि एवं स्वामी-सेवकाटि सट भाशुभ परिणामों से बाँधे गये आयु कर्म के वशवर्ती हो देवगति, मनुष्यगति, तिर्यंचगति एवं नरकगति रूप पर्याय ग्रहण करने के लिए यथास्थान चले जाते हैं और वहाँ की आयु पूर्ण होते पुनः अन्यगति में चले जाते हैं, इसी कारण बन्धुतादि को अनित्य कहा गया है।
छायानामिव पान्थानां, संवासो नश्वरोऽङ्गिनाम् ।
चक्षुषामिव रागोऽत्र, न स्नेहो जायते स्थिरः ।।१८०५ ।। अर्थ - जैसे मार्ग में चलते हुए पथिक का मार्ग स्थित वृक्षों की छाया से किंचित् ही संयोग होता है, वैसे परिवारजनों से अल्पकालीन संयोग ही हो पाता है। अथवा जैसे प्रणय अर्थात् प्रेम-कलहादि से कुपित मनुष्यों के नेत्र किंचित् काल तक ही लालिमायुक्त दिखाई देते हैं वैसे ही प्रियजनों का स्नेह अल्पकाल तक ही रहता है. स्थिर नहीं रहता इसलिए उसे अनित्य कहा जा रहा है॥१८०५॥
संयोगो देहिनां वृक्षे, शर्वर्यामिव पक्षिणाम् ।
आज्ञैश्वर्यादयो भावाः, परिवेषा इव स्थिराः ।।१८०६॥ अर्थ - जैसे जिस किसी वृक्ष पर पक्षियों का पारस्परिक संयोग रात्रि में होता है और प्रातः समाप्त हो जाता है, वैसे ही परिवार जनों का सम्बन्ध अस्थिर है, तथा जैसे सूर्य या चन्द्र पर होने वाला परिवेश क्षणिक है, वैसे ही आज्ञा, ऐश्वर्य, आरोग्य, धन-वैभव एवं प्रभुतादि भी क्षणिक हैं, अनित्य हैं ।।१८०६।।
जीवानामक्ष-सामग्री, शंपेवास्ति चला चलम् ।
विनश्वरमशेषाणां, मध्याह्न इव यौवनम् ।।१८०७॥ अर्थ - जीवों की इन्द्रियों की भोगसामग्री भी विद्युत्वत् चंचल है। अर्थात् कभी इन्द्रियाँ यथावत् रहती हैं किन्तु पापोदय से भोगसामग्री नष्ट हो जाती है अथवा कभी नेत्रादि इन्द्रियाँ कमजोर अथवा नष्ट हो जाती हैं तथा मनुष्यों का यौवन भी मध्याह्नकाल के समान विनश्वर है।।१८०७ ।।
चन्द्रमा वर्धते क्षीण, ऋतुरेति पुनर्गतः।
नदीजलमिवातीतं, भूयो नायाति यौवनम् ।।१८०८।। अर्थ - जैसे चन्द्रमा की कलाएँ क्षीण होकर पुन: वृद्धिंगत हो जाती हैं, हेमन्त, शिशिर एवं वसन्तादि ऋतुएँ भी जाकर पुन: लौट आती हैं वैसे हमारा प्यारा यौवन एक बार व्यतीत हो जाने पर उसी भवन में उसी प्रकार पुन: लौट कर नहीं आता जैसे नदीप्रवाह में गया हुआ जल फिर वापिस नहीं आता ॥१८०८ ॥
धावते देहिनामायुरापगानामिवोदकम् । क्षिप्रं पलायते रूपं, जलरूपमिवाङ्गिनाम् ॥१८०९॥