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मरणकण्डिका - ४८७
अर्थ - संसार के दुखों से भयभीत क्षपक चार प्रकार के धर्मध्यानों का ध्यान करने के बाद अब चार प्रकार के शुक्ल ध्यानों का ध्यान करने के लिए प्रवृत्त होता है ।।१७८५ ॥
प्रश्न - ध्यान किसे कहते हैं ? उसके भेद-प्रभेद कितने हैं ?
उत्तर - एक पदार्थ में मन का स्थिर होना ध्यान है। अप्रशस्त और प्रशस्त के भेद से ध्यान दो प्रकार का है। आर्तध्यान एवं रौद्रध्यान के भेद से अप्रशस्त ध्यान दो प्रकार का है। ये दोनों ध्यान संसार के कारण हैं अतः सर्वदा त्याज्य हैं।
धर्मध्यान और शुक्लध्यान के भेद से प्रशस्त ध्यान भी दो प्रकार का है। ये दोनों ध्यान नियमत: स्वर्ग एवं मोक्ष के हेतु हैं। शुक्लध्यान तो साक्षात् मोक्ष का हेतु है किन्तु वह वर्तमान पंचम काल में नहीं होता। इन चारों ध्यानों के पुनः चार-चार भेद होते हैं, जिनका विशेष विवेचन क्रमश: किया जा रहा है।
आर्त-रौद्र-द्वयं त्याज्यं, सर्वदा दुःख-दायकम् ।
तेन विध्वस्यते ध्यानं, दुर्नयेनेव सन्नयः ।।१७८६ ।। अर्थ - जैसे कुनयों से सुनय नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही अप्रशस्तध्यानों से धर्मध्यानादि प्रशस्त ध्यान नष्ट हो जाते हैं अत: परीषह एवं उपसर्गों से पीड़ित होने पर भी क्षपक को दुख देने वाले आर्तध्यान और रौद्रध्यान इन दोनों को सर्वदा छोड़ देना चाहिए ॥१७८६ ।।
रौद्रं चतुर्विधं ध्यानं, ये चान्ते सन्ति केचन ।
ते भेदा दूरतस्त्याज्या, विज्ञाय विधि-वेदिना ॥१७८७ ।। अर्थ - आर्तध्यान और रौद्रध्यान के जो चार-चार भेद हैं उन्हें ध्यान की विधि एवं उनके फल को जानने वाले संस्तरारूढ़ क्षपक को दूर से ही छोड़ देना चाहिए ।।१७८७ ।।
रौद्रध्यान के भेद स्तेयासत्यवचो-रक्षा-षड्विधारम्भ-भेदतः।
कषाय-सहितं रौद्रं, ध्यानं ज्ञेयं समासतः ।।१७८८ ।। अर्थ - कषाय सहित ध्यान को रौद्र ध्यान कहते हैं। रौद्र ध्यान का यह संक्षिप्त लक्षण है। चोरी का विचार, असत्यभाषण का चिन्तन, परिग्रह की रक्षा में तत्परता का भाव, षट्काय के जीवों के आरम्भ में संलग्नता अर्थात् चौर्यानन्दी, मृषानन्दी, परिग्रहानन्दी एवं हिंसानन्दी के भेद से रौद्र ध्यान चार प्रकार का है।।१७८८ ।।
आर्तध्यान के भेद प्रियायोगाप्रिय-प्राप्ति-परीषह-निदानतः।
कषाय-कलितं ध्यानमात प्रोक्तं चतुर्विधम् ॥१७८९ ॥ अर्थ - प्रिय वस्तु के वियोग में इष्टवियोगज, अप्रिय वस्तु के संयोग में अनिष्टसंयोगज, परीषह आने पर पीड़ाचिन्तन एवं आगामी काल में भोगप्राप्ति की वांछाजन्य निदानबन्ध के भेद से आर्तध्यान भी चार प्रकार का है। यह आर्तध्यान भी कषायभावों से युक्त होता है।।१७८९ ।।