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मरणकण्डिका - ४६८
पश्चाताप, रुदन, वध और हृदय को व्यथित करने वाला रुदन स्वयं करे या दूसरे के रुदन आदि में निमित्त बने या ये दोनों करे तो असातावेदनीय कर्म का क्रमश: तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम आस्रव होता है जो पीड़ा आदि की वृद्धि में ही कारण बनता है। अधिक व्याकुलता जीव को असंयमी बना देती है और असंयम असातावेदनीय के अनुभाग को बढ़ाता रहता है, अतः पीड़ित साधु को पीड़ा, भूख एवं प्यास आदि की वेदना से उपयोग हटा कर अपने संयम को दृढ़ रखते हुए रत्नत्रय की भावना भानी चाहिए क्योंकि जो संयमी रत्नत्रय की भावना में तत्पर रहते हैं, वेदना उनका पीछा नहीं करती अपितु रत्नत्रय की भावना असाता के उदय को मन्द-मन्द ही करती है।
कांक्षन्तोऽपि न जीवस्य, पाप-कर्मोदये क्षमाः ।
वेदनोपशमं कर्तुं, त्रिदशा: सपुरन्दराः ॥१६९८ ।। अर्थ - जीव के पाप कर्म का उदय आ जाने पर स्वर्गस्थ सब देवों सहित चाहते हुए अर्थात् इच्छा करते हुए भी इन्द्र मनुष्य की पीड़ा को दूर करने में अथवा उसे सुखी करने में समर्थ नहीं होता है ।।१६९८ ।।
उदीर्ण-कर्मण: पीडा, शमयिष्यति किं परः।
अभग्नो दन्तिना वृक्षः, शशकेन न भज्यते ॥१६९९ ।। अर्थ - असातावेदनीय कर्म के उदय से होने वाली पीड़ा को रोकने में जब इन्द्रादि भी असमर्थ हैं तब अन्य साधारण पुरुष क्या उसका शमन कर सकते हैं ? जिस वृक्ष को तोड़ने में महाबलशाली हाथी भी असमर्थ है उसे बेचारा कमजोर खरगोश नहीं तोड़ सकता अर्थात् नहीं गिरा सकता ।।१६९९ ।।
कर्माण्युदीर्यमाणानि, स्वकीये समये सति ।
प्रतिषेधुं न शक्यन्ते, नक्षत्राणीव केनचित् ।।१७०० ।। अर्थ - जैसे यथासमय उदित होने वाले नक्षत्रों का उदय रोकना अशक्य है, वैसे ही अपने-अपने समय पर या स्थिति पूर्ण हो जाने पर उदय में आने वाले कर्मों को रोकना अति अशक्य है॥१७०० ॥
ये शक्राः पतनं शक्ता, न धारयितुमात्मनः ।
ते परित्रां करिष्यन्ति, परस्य पततः कथम् ॥१७०१ ।। अर्थ - दिव्य एवं विक्रिया शक्ति सम्पन्न इन्द्र, आयु पूर्ण हो जाने पर जब स्वयं अपने आप को वहाँ से च्युत होते नहीं रोक सकते तब कर्मोदय से ग्रसित व्यक्तियों की अधवा गिरते हुए अन्य व्यक्तियों की रक्षा कैसे कर सकते हैं ? अर्थात् नहीं कर सकते ॥१७०१ ॥
तरसा येन नीयन्ते, कुज्जरा मद-मन्थराः।
शशकानामसाराणां, तत्र स्रोतसि का स्थितिः ॥१७०२ ।। अर्थ - जिस जलप्रवाह में मदोन्मत्त अर्थात् महाबली, महापराक्रमी और विशालकाय हाथी बह जाते हैं तब उस जलप्रवाह में कमजोर खरगोशों की क्या स्थिति हो सकती है ? ||१७०२ ।।
त्रिदशा येन पात्यन्ते, विक्रिया-बलशालिनः । नायासो विद्यते तस्य, कर्मणोऽन्य-निपातने ॥१७०३।।