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मरणकण्डिका - ४८०
यते ! देह-ममत्वेन, प्राप्तं दुःखमनारतम्।
इदानीं सर्वथा साधो ! तत्ततस्त्वं निराकुरु ।।१७५३ ।। अर्थ - हे मुने ! इस शरीर सम्बन्धी ममत्व से ही तुमने सतत दुख प्राप्त किया है, अतः हे साधो! अब इस समय तुम इस शारीरिक ममत्व को सर्वथा त्याग दो ॥१७५३ ।।
दुःखं जन्म-समं नास्ति, न मृत्यु-सदृशं भयम् ।
जन्म-मृत्यु-करी छिद्धि, शरीर-ममतां ततः॥१७५४॥ अर्थ - हे साधो ! इस संसार में जन्म के सदृश कोई दुख नहीं है और मरण के सदृश कोई भय नहीं है और जन्म-मरण रूपी रोग का प्रधान कारण शरीरजन्य ममत्व है अत: तुम शारीरिक ममत्त्व छेद डालो अर्थात् छोड़ दो ॥१७५४ ॥
परोऽयं विग्रहः साधो ! चेतनोऽयं यतः परः।
ततस्त्वं विग्रह-स्नेहं, महाक्लेश-करं त्यज ॥१७५५॥ अर्थ - हे साधो ! क्योंकि यह शरीर भिन्न है और तुम्हारी चेतनात्मा भिन्न है इसलिए तुम महाक्लेश को उत्पन्न करने वाली इस शरीर की ममता को छोड़ दो ॥१७५५ ।।
महमानो मने ! सम्यगुपसर्ग-परीषहान् ।
निःसङ्गस्त्वमसंक्लिष्टो, देह-मोह तनूकुरु ॥१७५६ ।। अर्थ - हे साधो ! तुम सब उपसर्गों को और सर्व परीषहों को सहन करते हुए नि:संगत्व-भावना से संक्लिष्ट परिणामों के बिना मोह को कृश करो ॥१७५६॥
संक्लेश परिणामों के त्याग बिना समाधि नहीं तृणादि-संस्तरो योग्यश्चतुर्धा सङ्ग-मीलनम्।
नि:फलं जायते साधो ! मृत्यौ संक्लिष्ट-चेतसः ॥१७५७ ।। अर्थ - हे साधो ! (समाधि का अन्तरंग कारण समता भाव है, शय्या एवं संघ तो बहिरंग कारण हैं अतः) यदि मरते समय संक्लेश परिणाम होते हैं तो तृणादि चार प्रकार का योग्य संस्तर ग्रहण करना एवं चतुर्विध संघ का एकत्र होना निष्फल है।।१७५७ ।।
रलसम्भृत-पात्रस्था, वणिजः सागरे यथा। पत्तनं निकषा साधो ! निमज्जन्ति प्रमादतः ।।१७५८ ।। तथा सिद्धि-समीपस्था:, शुद्ध-संस्तर-यायिनः ।
निपतन्ति भवावर्ते, जीवा: सङ्क्लेश-योगतः ।।१७५९॥ अर्थ - जैसे व्यापारी का रत्नों से भरा जहाज नगर के समीप तक आकर भी उसके प्रमाद के कारण समुद्र में डूब जाता है, वैसे ही शुद्ध-संस्तर में स्थित और समाधि सिद्धि के निकट पहुँचे हुए भी कई क्षपक संक्लेश परिणामों के योग से संसार-समुद्र में डूब जाते हैं॥१७५८-१७५९ ।।