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मरणकण्डिका - ४८४
अर्थ - हे उत्कृष्ट बुद्धिधारक यत्ते ! तुम मित्रों में, शत्रुओं में, कुल में, संघ में, शिष्यों में एवं साधर्मी जनों में दीक्षा के अथवा समाधिग्रहण के पूर्व जो रागद्वेषात्मक परिणाम रखते थे, उन्हें छोड़ दो॥१७७२।।
कुर्यादिव्यादि-भोगानां, क्षपकः प्रार्थनां न तु |
उक्ता विराधना-मूलं, विषयेषु स्पृहाः यतः १७७३ । अर्थ - विषय-भोगों की अभिलाषा ही रत्नत्रय की/मोक्षमार्ग की चारों आराधनाओं की विराधना का मूल है, ऐसा आगम में कहा है अत: हे क्षपकराज ! तुम देवों के एवं चक्रवर्ती आदि के दिव्य भोगों की अभिलाषा कदापि मत करना ।।१७७३ ।।
शब्द रूपे रसे गन्धे, स्पर्शे साधो ! शुभेऽशुभे । सर्वत्र समतामेहि, तथा मानापमानयोः ।।१७७४ ।। समानो भव सर्वत्र, निर्विशेषो महामते !
राग-द्वेषोदये जन्मो म.र्थो विजयते .. १५ : - अर्थ - हे साधो ! तुम इष्ट-अनिष्ट शब्दों में, रूप में, रस में, गन्ध में, स्पर्श में, मान में तथा अपमान में सर्वत्र ही सदा समता भाव धारण करो, क्योंकि जीवों के उत्पन्न होने वाले राग-द्वेषरूप परिणाम ही उत्तमार्थ रत्नत्रय/सम्यग् ध्यान समाधिमरण को नष्ट कर देते हैं। यह पदार्थ बहुत उपकारी है एवं उत्तम है अथवा यह पदार्थ मुझे कष्ट देता है इस प्रकार की विशेषताएँ राग-द्वेष को उत्पन्न करती हैं अतः हे महामते ! तुम सर्व पदार्थों एवं सर्व परिस्थितियों में निर्विशेषता पूर्वक समता भाव धारण करो ॥१७७४-१७७५ ।।
गुर्वी यद्यपि पीडास्ति, प्रकृष्टा मारणान्तिकी।
तथापि क्षपको याति, सर्वत्र सम-चित्तताम् ।।१७७६ ।। अर्थ - यद्यपि उस क्षपक को अन्तिम समय में मरण पर्यन्त अत्यधिक प्रकृष्ट पीड़ा होती है तथापि वह सर्वत्र समताभावों को धारण करता है ।।१७७६||
प्रश्न - इस श्लोक का तात्पर्य अर्थ क्या है ?
उत्तर - इस देह से जीव का अनादिकालीन सम्बन्ध है। जीव ने भेदविज्ञान के अभाव में अद्यावधि इस सम्बन्ध पर विचार नहीं किया। सुख-दुख, भूख एवं प्यास आदि के वेदन शरीर के माध्यम से ही होते हैं अतः इसने शरीर को ही आत्मा माना। किसी विशिष्ट पुण्य योग से समाधिमरण का शुभ अवसर प्राप्त हुआ है, जीवन का अवसान अति निकट है। यद्यपि मरण समय जीव को असह्य पीड़ा होती है तथापि धैर्यरूप दृढ़ कवच-धारी क्षपक गुरु के उपदेश से भेदविज्ञान की प्रकृष्टता को प्राप्त कर मोहरहित होता हुआ समता भाव धारण कर अपना प्रयोजन सिद्ध कर लेता है।
एवं भावित-चारित्रो, यावद्वीयं कलेवरे। तावत्प्रवर्तते साधुरुत्थाय शयनादिषु ।।१७७७ ।।।