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मरणकण्डिका ४८३
कर कमलों से व्याप्त सरोवर विबोध को प्राप्त हो जाता है। अर्थात् खिल जाता है, वैसे ही क्षणभर में दोषों को दूर करने वाले और मन के अज्ञान अंधकार को हटा देने वाले आचार्य के मधुर वचनों को प्राप्त कर अल्पबुद्धि भी क्षपक अतिशयरूप से बोध को प्राप्त हो रत्नत्रय की आराधना में सावधान हो जाता है || १७६७ ॥
परीषहं प्रभवति संस्तरे स्थितो, निकर्तितुं परम-पराक्रम - क्रमः ।
निराकुलः कवचधरस्तपोधनो, रणाङ्गणे रिपुमिव कर्कशः भटः || १७६८ ।।
इति कवचः ॥
अर्थ- जैसे परम पराक्रमी अभेद्य कवच द्वारा सुरक्षित योद्धा युद्धभूमि में स्थित होकर अत्यन्त बलशाली शत्रुओं पर भी प्रहार करने में समर्थ होता है, वैसे ही आचार्य के उपदेशामृतरूप दृढ़ कवच-धारी क्षपक रूपी योद्धा निराकुल एवं परम पराक्रमी होता हुआ संस्तर में स्थिर होकर परीषह एवं उपसर्ग रूपी कठिन शत्रुओं को भी जीतने में समर्थ होता है ।। १७६८ ॥
इस प्रकार सल्लेखना के चालीस अधिकारों में से कवच नाम का पैंतीसवाँ अधिकार पूर्ण हुआ || ३५ ॥
३६. समता - अधिकार
इत्येवं क्षपकः सर्वान्, सहमान: परीषहान् ।
सर्वत्र निःस्पृहीभूतः प्रयाति सम - चित्तताम् ।। १७६९ ।।
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अर्थ - इस प्रकार ( आचार्यदेव की कृपा से मन में धैर्यरूपी दृढ़ कवच धारण करने वाला) क्षपक समस्त परीषहों को सहन करता हुआ सर्व विषय कषाय, परिग्रह, शरीर एवं संघ आदि में अत्यन्त निस्पृह हो समता परिणामों को धारण करता है ।। १७६९ ।।
समस्त - द्रव्य - पर्याय-ममत्वासङ्ग-वर्जितः ।
निः प्रेम- राग - मोहोऽस्ति सर्वत्र सम-दर्शनः ।। १७७० ।।
अर्थ - वह क्षपक जीवादि समस्त द्रव्य उनके गुण एवं द्रव्य और गुणों की समस्त पर्यायों में “ये मेरे सुख के साधनभूत हैं" इस प्रकार के ममत्व तथा आसक्ति भाव से रहित हो जाता है, और भी सर्वत्र राग, द्वेष एवं मोह से रहित होता हुआ समता भाव धारण कर लेता है ।।१७७० ॥
प्रियाप्रिय पदार्थानां समागम-वियोगयोः ।
विजहीहि त्वमौत्सुक्यं दीनत्वमरतिरतिम् ॥१७७१ ।।
अर्थ- हे क्षपक ! तुम प्रिय अर्थात् इष्ट वस्तुओं के संयोग में उत्कण्ठा एवं रतिभावों को तथा अप्रिय/
अनिष्ट पदार्थों के वियोग हेतु दीनता एवं अरति भावों को छोड़ दो ॥। १७७१ ।।
मित्रे शत्रौ कुले सङ्के, शिष्ये साधर्मिके गुरौ । राग-द्वेषं पुरोत्पन्नं, विमुञ्चस्व प्रधीर्यते ! ।। १७७२ ।।