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मरणकण्डिका - ४६६
अर्थ - हे महामते ! यदि तुमने परवश होकर वैसी भूख-प्यास की घोर एवं असह्य वेदना सही है तो अब रत्नत्रयधर्म की वृद्धि या रक्षण के लिए अल्प काल की यह किंचित् वेदना स्वेच्छा पूर्वक क्यों सहन नहीं करते हो ? ||१६८९ ॥
समुद्रो लङ्यितो येन, मकरग्राह-सङ्कुलः।
गोष्पदं लङ्वतस्तस्य, न खेदः कोऽपि विद्यते ।।१६९०॥ अर्थ - देखो ! जिसने मकर-मत्स्यादि भयावह जलचर जीवों से व्याप्त समुद्र पारकर लिया है उसे गोष्पद प्रमाण जल का उल्लंघन करने में कुछ भी खेद नहीं होता है।।१६९० ॥
प्रश्न - इस दृष्टान्त का क्या प्रयोजन है ?
उत्तर - इस दृष्टान्त का यह प्रयोजन है कि हे क्षपक ! जब तुम नरकादि दुर्गतियों में सागरों पर्यन्त सागर के समान ही विशाल भूख-प्यास की दुरन्त वेदनाएँ अनेक बार सहन कर चुके हो तो अब समाधिकाल के शुभ समय में स्वयं आमन्त्रित अल्पकालीन गोपदसदृश इस भूख-प्यास की वेदना को शान्तिपूर्वक सहन क्यों नहीं कर रहे हो ? क्यों चिल्लाते हो, क्यों संक्लेशित होते हो तथा दीनता दिखाकर या रो-रोकर क्यों धर्म को लजाते हो?
श्रुति-पानक-शिक्षान-श्रुत:ध्यानौषधैर्यते।
वेदनानुगृहीतेन, सोढुं तीव्रापि शक्यते ॥१६९१ ।। अर्थ - हे मुने ! इस समय तुम भूख, प्यास एवं रोग से आक्रान्त होकर आकुलित हो रहे हो अत: हम उपदेश रूपी अमृतमयी पेय पिलाकर शिक्षा रूपी भोजन खिलाकर एवं सूत्रार्थ की ध्यान रूपी औषधि का प्रयोग कर तुम्हारा अनुग्रह कर रहे हैं, इस भोजन-पान तथा औषधि से तुम इससे तीव्र भी वेदना सहन करने में समर्थ हो जाओगे ॥१६९१॥
पीडानामुपकारस्य, सोपकारस्य चोदिता।
नाभीतस्य न भीतस्य, जन्तोर्नश्यति कर्मणि ॥१६९२ ।। अर्थ - असातावेदनीय कर्म की उदीरणा से प्रेरित होकर जो वेदना उत्पन्न हो गई है, वह डरो या न डरो, प्रतिकार करो या न करो वह तो अब बिना भोगे नष्ट नहीं हो सकती है अर्थात् उदयागत वेदना तो अवश्यमेव भोगनी पड़ेगी॥१६९२।।
औषधानि सवीर्याणि, प्रयुक्तान्यपि यत्नतः।
पापकर्मोदये पुंसः शमयन्ति न वेदनाम् ।।१६९३ ।। अर्थ - जब मनुष्य के तीव्र पापकर्म का उदय होता है तब अतिशय शक्तिशाली, बड़े यत्न एवं विधिविधान पूर्वक प्रयुक्त हुई औषधियाँ भी वेदना को शान्त नहीं करती हैं ।।१६९३ ।।
असंयम-प्रवृत्तानां, पार्थिवादि-कुटुम्बिनाम् । पीडा धन्वन्तरिः शक्तो, निराकर्तुं न कर्मजाम् ॥१६९४ ।।