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मरणकण्डिका - ४६५
अर्थ - हे भद्र क्षपकराज ! पूर्वभव में उपार्जित पापोदय से उत्पन्न असह्य मानसिक दुखों की कारणभूत देव पर्याय से च्युत होते समय जीव को दिव्य देवत्व भी अप्रशस्त प्रतीत होने लगता है। हे कल्याणेच्छु! इस प्रकार तुमने संसार में सर्वत्र ही अपार दुख प्राप्त किये हैं। अब विषाद छोड़ो, अतीत के समस्त दुखों का चिन्तन करो और मन की समाधानता पूर्वक ग्रहण की हुई सल्लेखना में दृढ़ता पूर्वक संलग्न हो जाओ ॥१६८३ ।।
इस प्रकार देवगतिजन्य दुखों का वर्णन समाप्त हुआ।
सल्लेखनागत दुख शान्तिपूर्वक सहन करने का निर्देश दुर्गतौ यत्त्वया प्राप्तमेवं दुःखमनेकशः।
न तस्यानन्त-भावोऽपि, भद्र ! दुःखमिदं स्फुटम् ।।१६८४॥ अर्थ - हे भद्र ! इस प्रकार तुमने चारों गतियों में जो अनेक प्रकार के दुख भोगे हैं उन दुखों की अपेक्षा समाधिमरण में भूख, प्यास एवं रोगादि की तुम्हारी यह वेदना तो उसके अनन्तभाग प्रमाण भी नहीं है॥१६८४ ।।
संख्यातमप्यसंख्यातं, कालमध्यास्य तादृशम्।
अल्पकालमिदं दुःखं, सहमानस्य का व्यथा ।।१६८५॥ अर्थ - हे क्षपक ! तुमने अतीत में संख्यात और असंख्यात वर्ष प्रमाण काल में निरन्तर भयंकर दुःख सहन किये थे तब अब बहुत थोड़े से काल का यह किंचित्सा दुख सहते हुए क्या व्यथा मानना? अर्थात् यह थोड़ा सा दुख क्यों सहन नहीं कर पा रहे हो ? क्यों आकुलता करते हो? ।।१६८५ ।।
अवशेन त्वया सोढास्तादृश्यो वेदना यदि ।
किं सदा धर्मबुद्ध्येयं, स्व-वशेन न सह्यते ॥१६८६ ॥ अर्थ - यदि तुमने परवशता से वैसी महावेदनाएँ सहन की थीं, तब इस समय धर्मबुद्धि से स्वाधीनता पूर्वक यह अल्पसा दुख क्यों नहीं सहन करते हो? अर्थात यह भूखादि की वेदना तो समतापूर्वक सहन करनी चाहिए ।।१६८६॥
संसारे भ्रमतस्तृष्णा, दुरन्ता या तवाभवत् । न सा शमयितुं शक्या, सर्वाम्भोधि-जलैरपि ।।१६८७ ।। बुभुक्षा तादृशी जाता, संसारे सरतस्तव।
न शक्या यादृशी हन्तुं, सर्व-पुद्गल-राशिना ॥१६८८॥ अर्थ - हे क्षपक ! संसार-भ्रमण करते हुए तुम्हें प्यास की ऐसी दुरन्त वेदना उत्पन्न हुई थी जिसका शमन करने के लिए सर्व समुद्रों का जल भी समर्थ नहीं था। उसी प्रकार चिरकाल से संसार-परिभ्रमण करने वाले तुम्हें भूख की ऐसी वेदना अनन्त बार हुई थी कि जिसका शमन करने के लिए समस्त पुद्गल राशि भी समर्थ नहीं थी।१६८७-१६८८।।
सोदवा तृष्णा-बुभुक्षे ते, त्वं नेमे सहसे कथम् । स्व-वशे धर्म-वृद्ध्यर्थमल्पकाले महामते ! ॥१६८९॥
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