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मरणकण्डिका - ४७३
अर्थ - त्याग ग्रहण किये बिना मनुष्यों के मर जाने पर इतना दोष नहीं होता जितना महादोष त्याग लेकर उसका भंग करने पर होता है॥१७२५ ॥
प्रश्न - इस श्लोक का क्या अभिप्राय है ?
उत्तर - इसका अभिप्राय यह है कि आहार के त्याग की प्रतिज्ञा किये बिना जो साधु मरण करते हैं उनके जलादिका त्याग तो नहीं हो पाता किन्तु व्रतभंग के परिणामरूप संक्लेश नहीं होता अत: वह महान् दोष का भागी नहीं होता किन्तु आहार-जल के त्याग की प्रतिज्ञा लेने के बाद यदि भूख-प्यास की वेदना उत्पन्न हो जाती है और उसे क्षपक सहन नहीं कर पाता तब उसके मन में प्रतिज्ञाभंग करने रूप तीव्र संक्लेश रूप परिणाम उत्पन्न हो जाते हैं या वह उस प्रतिज्ञा को तोड़ देता है तब वह महादोष का भागी होता है।
हिनस्ति देहिनोऽन्नार्थ, भाषते वितथं वचः । परस्य हरते द्रव्यं, स्वीकरोति परिग्रहम् ।।१७२६ ।। रत्नत्रयं जगत्सारमाहारार्थ विमुञ्चति ।
निस्त्रपो भुवन-ख्यातं. मलिनी-कुरुते कुस्म।१७ !! अर्थ - जैसे संसारी प्राणी भोजन के लिए जीवों का घात करता है, झूठ वचन बोलता है, दूसरों का धन चुराता है और परिग्रह का संचय करता है, वैसे ही निर्लज्ज साधु आहार के लिए जगत् में सार-भूत अपने रत्नत्रय को छोड़ देता है और अपने जगत् विख्यात कुल को मलिन कर देता है।।१७२६-१७२७ ।।
प्रश्न - प्रतिज्ञा भंग करने से रत्नत्रय का नाश कैसे होता है और जगत्-विख्यात कुल कौन सा है ?
उत्तर - परमेष्ठी की साक्षी में आहार-जल का त्याग कर यदि आहारादि ग्रहण कर लेता है तो परमेष्ठी के प्रति उस साधु की श्रद्धा के भाव नष्ट हुए, हिताहित का ज्ञान नष्ट हुआ और प्रतिज्ञा भंग कर देने से चारित्र भी नष्ट हुआ। इस प्रकार प्रतिज्ञा भंग करते ही साधु रत्नत्रय से भ्रष्ट हो जाता है।
दीक्षा का कुल तो अर्हन्त देव का कुल है, या आचार्य परम्परा का कुल है, या संघ ही साधु का कुल है अत: दीक्षा का कुल तो जगत् विख्यात कुल ही कहा जाता है और आहारादि का त्याग कर पुन: उसे ग्रहण करने वाले साधु का अपने जन्म का कुल भी महान् हो सकता है। प्रतिज्ञा भंग करते ही ये दोनों कुल मलिन हो जाते हैं, क्योंकि लौकिक जन अपवाद करते हैं कि देखो ! सुनो ! सुनो ! अमुक कुल में जन्मे या अमुक आचार्य परम्परा के साधु ने या अमुक संघस्थ साधु ने आहार-जल का त्याग कर दिया था किन्तु अब पुनः ग्रहण कर रहा है। देखो ! अमुक संघ के साधु ने प्रत्याख्यान का भंगकर दिया है, प्रतिज्ञा नष्ट कर दी है, इत्यादि।
जिह्वेन्द्रिय-वशस्याशु, बुद्धिस्तीक्ष्णापि नश्यति ।
सम्पद्यते परायत्तो, योनिगश्लेषलग्नवत् ।।१७२८ ॥ अर्थ - तीक्ष्ण बुद्धि धारण करने वाला मनुष्य भी यदि जिह्वा इन्द्रिय के वशीभूत हो जाता है तो उसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है और वह आहारलोलुपी साधु वज्रमयी बन्धन से बँधे हुए के समान पूर्णतः परतन्त्र जैसा हो जाता है॥१७२८ ।।