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मरणकण्डिका - ४७४
धर्म-धैर्य-कृतज्ञत्व-माहात्म्यानि निरस्थति ।
महान्तं कुरुतेऽनर्थ, गल-लग्नो यथा झषः ।।१७२९ ।। अर्थ - जैसे जाल में फंसी हुई मछली जालगत खाद्य वस्तु के वशीभूत हो अपने प्राण खोनेरूप महा अनर्थ कर डालती है, वैसे ही आहारलुब्ध साधु आहार के पीछे रत्नत्रय धर्म, धैर्य, संघ की कृतज्ञता और संघ एवं अपने स्वयं के माहात्म्य को खोकर अपना महान् अनर्थ कर लेता है ।।१७२९ ।।
कुलीनो धार्मिको मानी, ख्यात-कीर्तिर्विचक्षणः ।
अभक्ष्यं वल्भते वस्तु, विरुद्धां कुरुते क्रियाम् ॥१७३० ।। अर्थ - कुलीन, धार्मिक, स्वाभिमानी, प्रसिद्ध कीर्तिशाली एवं विलक्षण बुद्धिमान मनुष्य भी आहार के वशीभूत हो कुल के विपरीत अयोग्य क्रियाओं के साथ-साथ अभक्ष्यभक्षण भी करने लगता है॥१७३० ।।
दुर्भिक्षादिषु माओरी-शिंशुमाराहि-मानवाः ।
वल्लभान्यप्यपत्यानि, भक्षयन्ति बुभुक्षिसाः ॥९७३१ ।। अर्थ - भूख से पीड़ित होने वाले बिल्ली, शिंशुमार, सर्प तथा मनुष्य दुर्भिक्षादि कुसमय में अपने प्रिय पुत्र-पुत्री आदि को भी खा जाते हैं॥१७३१ ।।
ये जन्म-द्वितये दोषाः, केचनानर्थकारिणः ।
ते जायन्तेऽखिला जन्तोराहारासक्त-चेतसः ।।१७३२॥ __ अर्थ - उभय लोको में मनुष्य का अनर्थ करने वाले अर्थात् उसे दुख देने वाले जो-जो दोष हैं, वे सब दोष आहार में आसक्तचित्त वाले साधु या मनुष्य को आहार की लम्पटता से सहज प्राप्त हो जाते हैं ॥१७३२ ।।
आहार-संज्ञया श्वभ्रं, महान्तं सप्तमं परम् ।
गच्छन्ति तिमयो यातः, शालिसिक्थोऽपि नष्ट-धीः ।।१७३३ ॥ अर्थ - आहार संज्ञा के वशवर्ती महामत्स्य महाभयावह सातवें नरक में जाते हैं, तथा नष्टबुद्धि तन्दुल मत्स्य भी सातवें नरक में जाते हैं ।।१७३३ ॥
प्रश्न - महामत्स्य और तन्दुलमत्स्य कौन हैं, कहाँ रहते हैं, कितने बड़े-छोटे होते हैं और दोनों सातवें नरक क्यों जाते हैं ?
___ उत्तर - मध्यलोक में असंख्यात समुद्र हैं। इनमें प्रथम लवण समुद्र, द्वितीय कालोदधि और अन्तिम स्वयम्भूरमण, ये तीन समुद्र कर्मभूमि सम्बन्धी हैं अत: इन तीन समुद्रों में महामत्स्यादि जलचर जीव पाये जाते हैं, शेष असंख्यात समुद्र जलचरजीवों से रहित हैं क्योंकि वे जघन्य भोगभूमि के अन्तर्गत हैं। ये महामत्स्य इन्हीं तीन समुद्रों में रहते हैं। यथा-लवणसमुद्र के तट पर रहने वाले मत्स्यों के शरीर की लम्बाई ९ योजन (अनुमानतः ७२ मील), चौड़ाई ४, १/२ योजन (३६ मील) और ऊँचाई २, १/४ योजन (१८ मील) प्रमाण है। इसी
१. त्रिलोकसार गाथा ३२१ और उसकी टीका।