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मरणकण्डिका - ४७५
समुद्र के मध्य में रहने वाले मत्स्यों के शरीर की अवगाहनादि इससे दुगुणी अर्थात् लम्बाई १८ योजन (१४४ मील), चौड़ाई ९ योजन और ऊँचाई साढ़े चार योजन है।
दूसरे कालोदधि समुद्र तट के समीप रहने वाले मत्स्यों के शरीर की लम्बाई १८ योजन, चौड़ाई ९ योजन और ऊँचाई ४, १/२ योजन है, तथा मध्यगत मत्स्यों के शरीर की लम्बाई ३६ योजन (२८८ मील), चौड़ाई १८ योजन और ऊँचाई ९ योजन प्रमाण है।
अन्तिम स्वयम्भूरमण समुद्र के तटगत मत्स्यों के शरीर की लम्बाई ५०० योजन (४००० मील), चौड़ाई २५० योजन (२००० मील) और ऊँचाई ५२५ योजन (१००० मील) है और इसी समुद्र के मध्य में रहने वाले महामत्स्यों के शरीर की लम्बाई १००० योजन (८००० मील), चौड़ाई ५०० योजन और ऊँचाई २५० योजन प्रमाण है।
जैसे शुनि पुर में गिरे दुगा जलबिदुओं का मुक्तापल कप में परिणमन हो जाता है उसी प्रकार इन महामत्स्यों की पीठगत पानी में गिरे हुए शैल वृक्ष के पत्तों का शिला एवं मिट्टी आदि रूप परिणमन हो जाता है अत: इनकी पीठ पर मिट्टी का प्रचय, पत्थर, सर्ज नामक वृक्ष विशेष, अर्जुन, नीम, कदम्ब, आम, जामुन एवं जम्बीरादि के अनेक वृक्ष और सिंह तथा हरिण आदि गर्भज पशु पाये जाते हैं। वर्षाकाल के प्रारम्भ में वर्षा के जल एवं पृथ्वी के सम्बन्ध से मेंढ़क, मछली, कछुआ एवं चूहा आदि पंचेन्द्रिय सम्मूर्च्छन जीव भी उसकी उसी पीठ पर उत्पन्न होते रहते हैं और मरते रहते हैं।
स्वयम्भूरमण समुद्र में ये तिमितिमिंगल नामक महामत्स्य छह मास पर्यन्त मुख खुला रखकर सोते रहते हैं। उस समय जल-प्रवाह के साथ अनेक जलचर जीव मुख में आकर भी निकल जाते हैं। जाग्रत अवस्था में वे अपने मुखमें आये हुए मत्स्यों आदि को खाते रहते हैं अत: मर कर सातवें नरक जाते हैं।
इनके कानों में सालिसिक्थ नामक मत्स्य रहते हैं जो इनके कान का मैल खाकर जीवित रहते हैं। इनका शरीर मात्र चावल के बराबर होता है अतः इन्हें सालिसिक्थ कहते हैं। कान में बैठे हुए ये मन में सतत सोचते रहते हैं कि यदि मेरा मुख इतना बड़ा होता तो क्या एक भी जीव बच कर जा सकता था? मैं तो सबको खा जाता। इस प्रकार के संकल्प मात्र से मरकर वे भी सातवें नरक ही जाते हैं।
चतुरङ्ग-बलोपेतः, सुभूमः फल-लालस:।
नष्टोऽम्भोधौ निजैः सार्थ, ततोऽपि नरकं गतः॥१७३४।। अर्थ – चतुरंग बल से युक्त होते हुए भी सुभौम चक्रवर्ती फलों में आसक्त होकर अपने परिवार सहित समुद्र में नष्ट हुआ और मरकर सातवें नरक गया ||१७३४ ।।
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१. धवन पु. १४ सूत्र ५८० की टीका । २, भगवती आराधना, गाथा १६४२-४३ की टीका देखें।