________________
मरणकण्डिका - ४७०
हुए पदार्थों को तो कदापि देते नहीं फिर विषादादि से क्या लाभ । संक्लेश परिणामों से अमनोज्ञ-विप्रयोग नामक आर्तध्यान अर्थात् अनिष्ट पदार्थों के दूर होने का चिन्तन होता है। अथवा मेरा रोग कब दूर होगा? कौन सा उपाय करूँ? इसकी औषधि कहाँ मिलेगी? इत्यादि चिन्तन या प्रलाप करने से पीड़ा-चिन्तन नामक आर्तध्यान उत्पन्न होगा। अथवा परिचारक अनुकूल वृत्ति वाले होने चाहिए, अमुक साधु मेरे पास नहीं आते हैं वे मेरे मन के अनुकूल आहार-पान एवं औषधादि देते हैं अतः उन्हें मेरे पास से नहीं हटना चाहिए, इत्यादि चिन्तन से इष्ट वियोगज आर्तध्यान होगा। ये सब आर्तध्यान तिर्यंचायु का बन्ध कराने वाले हैं, अत: तुम अपना परिणाम सम्हालो, समता परिणाम रखो अन्यथा वर्तमान में समाधिजन्य थोड़े से दुख में घबराने वाले या डरने वाले आपको यह संक्लेश परिणाम तिर्यंचगति रूपी ऐसी भंवर में डाल देगा जिससे निकलना बहुत ही कठिन है और जहाँ के दुख अनिर्वचनीय हैं।
संक्लेश निरर्थक ही होता है हतं मुष्टिभिराकाश, विहितं तुव-खण्डनम् !
सलिलं मथितं तेन, संक्लेशो येन सेषितः ।।१७०९॥ अर्थ - जैसे मुट्ठियों से आकाश को मारना, चावल के लिए तुष या छिलकों को कूटना तथा घी के लिए जल का मन्धन करना निरर्थक है वैसे ही भूख, प्यास या रोगादि की पीड़ा होने पर संक्लेश करना निरर्थक है, कारण कि संक्लेश परिणाम किसी भी प्रकार की वेदना का शमन करने में समर्थ नहीं हैं ॥१७०९ ॥
पूर्व भुक्तं स्वयं द्रव्यं, काले न्यायेन तत्स्वयम्।
अधर्मणस्य कि दुःखमुत्तमाय यच्छतः ।।१७१०॥ अर्थ - जैसे कोई साहूकार से कर्ज लेकर उसका उपभोग करता है, उचित काल व्यतीत हो जाने पर जब वह लाया हुआ धन ब्याज सहित साहूकार को देता है तब अर्थात् देते समय क्या उसे दुख होता है ? नहीं होता, क्योंकि 'लाया हुआ कर्ज समय पर देना' यह न्याय है। इसे वह कर्जदार भली प्रकार जानता है ।।१७१०॥
कृतस्य कर्मण: पूर्व, स्वयं पाकमुपेयुषः ।
विकारं बुध्यमानस्य, कस्य दुःखायते मनः ॥१७११॥ __ अर्थ - यह दुख मेरे पूर्व में किये गये कर्मों का ही फल है, ऐसा जानो। भला, अपने किये कर्मविपाक को ऋणमुक्ति के समान भोगते हुए किस मनुष्य का मन दुखित होगा ? ॥१७११॥
पूर्व-कर्मागतासात, सहस्व त्वं महामते !
ऋण-मोक्षमिव ज्ञात्वा, मा भूर्मनसि दुः खितः ।।१७१२ ॥ अर्थ - हे महामते ! पूर्व जन्म में बाँधा हुआ तुम्हारा ही असाता कर्म उदय में आया है। यह तुम्हारा पूर्वकृत ऋण उतर रहा है। ऐसा विचार कर तुम इस पीड़ा को शान्तिपूर्वक सहन करो, मन में दुखी मत होओ॥१७१२॥