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मरणकण्डिका - ४५९
तिर्यंचगति के दुखों का कथन जन्म-मृत्यु-जराकीणी, घोरां तिर्यग्गतिं गतः।
किं तीव्रां बहुशो लब्धां, स्मरसि त्वं न वेदनाम् ।।१६६१॥ अर्थ - हे क्षपक ! नरक से निकल कर तुम घोर दुख देने वाली तिर्यंच गति में आये। यह तिर्यंच गति भी जन्म, मृत्यु एवं जरा आदि से आकीर्ण/भरी हुई है, वहाँ तुमने बहुत बार जो तीव्र वेदनाएँ भोगी हैं, इस समय उन वेदनाओं का स्मरण क्यों नहीं करते हो? ||१६६१॥
एकेन्द्रिय पर्यायजन्य दुख पञ्चधा स्थावरा जीवा, विमूढीभूत-चेतनाः।
लभन्त यानि दुःखानि, कः शक्तस्तानि भाषितुम् ॥१६६२ ।। अर्थ - सुप्त है चेतना जिनकी ऐसे पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक एवं वनस्पतिकायिक के भेद वाले पाँच स्थावर कायों में जो-जो दुख तुमने भोगे हैं उनका वर्णन करने में कौन समर्थ है ? कोई भी नहीं ॥१६६२ ॥
प्रश्न - दुखों का स्मरण करने से क्या लाभ है?
उत्तर - कितने ही प्रमादी मनुष्य अपने द्वारा उसी पर्याय में भोगे हुए दुख भी भूल जाते हैं फिर देखे हुए, सुने हुए, पढ़े हुए और दूसरों द्वारा भोगे हुए दुखों को भूल जाने में क्या आश्चर्य है ? अतः मनुष्यों द्वारा अनुभूत प्रमाद को दूर करने के लिए आचार्यदेव कहते हैं कि जिन दुखों का स्मरण करने से संसार से भय उत्पन्न करने वाला संवेग गुण प्रगट होता है और जिन्हें भूल जाने से अनेक दोष उत्पन्न हो जाते हैं ऐसे दुखों का सदा स्मरण करते रहना चाहिए।
प्रश्न - एकेन्द्रिय जीवों को क्या दुख हैं?
उत्तर - जो जंगम प्राणी हैं वे शीत में, वायु रहित स्थान में, गर्मी में तथा जलादि में भय उत्पन्न हो जाने पर आश्रयभूत निरापद स्थान पर जा सकते हैं और अपनी-अपनी भाषा के माध्यम से संकेत भी दे सकते हैं, किन्तु खेद है कि एकेन्द्रिय जीवों की ऐसी शक्ति नहीं है। जैसे मोक्ष के अभिलाषी विरागी मुनि सर्व उपसर्गों को बिना प्रतिक्रिया के मौनपूर्वक एक स्थान पर स्थिर रहकर सहन करते हैं। बेचारे एकेन्द्रिय जीव भी पराधीन होते हुए शीतोष्ण को आदि लेकर सर्व उपसर्ग बिना किसी प्रतिकार के सहन करते हैं, उनके दुखों को कह सकने का सामर्थ्य किसी में भी नहीं है।
त्रस जीवों के भेद एवं दुख सदा परवशी-भूताश्चतुर्धा प्रसकायिकाः।
दुःखं बहुविधं दीना, लभन्ते चिरमुल्वणम् ।।१६६३ ॥ अर्थ - द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय के भेद से त्रस जीव चार प्रकार के होते हैं। ये सदा पराधीन रहते हैं और दीन होकर चिरकाल तक बहुत प्रकार के उत्कट एवं घोर दुख भोगते हैं ॥१६६३ ।।