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मरणकण्डिका
जो बुद्धिमान हैं उनके वैराग्य उत्पन्न होने में और जो समाधिस्थ होकर भूख, ध्यास एवं रोगादि की आगत वेदना हैं उन्हें धैर्य या दृढ़ता उत्पन्न करने में जिसे यह जीव अनन्त बार भोग चुका है ऐसे ये तिर्यंच गति के दुखों का स्मरण या चिन्तन निमित्त है।
या
इस प्रकार तिर्यंचगति के दुखों का प्रकरण समाप्त हुआ । मनुष्यगति के दुख
मानुषीं गतिमापद्य, यानि दुःखान्यनेकशः ।
त्वमवाप्तचिरं कालं तानि स्मर महामते ! ।।१६६९ ॥
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अर्थ - हे महाबुद्धिमान् क्षपक ! तुमने मनुष्य गति में जन्म ले ले कर भी जिन महान् घोर दुखों को अनेक बार और बहुत समय तक भोगा था, उन दुखों का स्मरण करो || १६६९ ॥
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अर्थ- प्रियजनों के वियोग का दुख, अप्रियजनों या अप्रिय वस्तुओं के समागम का दुख और प्रार्थित वस्तु आदि न मिलने पर तुम्हें जो मानसिक दुख हुआ था, उसका स्मरण करो ।। १६७० ॥
प्रश्न प्रिय और अप्रिय किसे कहते हैं ?
उत्तर
जिस व्यक्ति या वस्तु का नाम सुनने मात्र से सर्वांग रोमांचित हो जाता है, देखते ही नेत्र अमृतसिंचन सदृश शीतल हो जाते हैं और मन मयूर आह्लादित हो नाच उठता है उस व्यक्ति को या उस वस्तु को प्रिय कहते हैं। तथा जिस व्यक्ति या वस्तु के नाम श्रवण मात्र से मस्तक में शूल उत्पन्न हो जाता है, देखते ही नेत्र लाल होकर घूमने जैसे लगते हैं और मन उद्वेग से भर जाता है उसे अप्रिय जन या अप्रिय वस्तु कहते
हैं।
प्रियस्य विगमे दुःखमप्रियस्य समागमे ।
अलाभे याच्यमानस्य, सम्पन्नं मानसं स्मर ।। १६७० ॥
कर्कशे निष्ठुरे निःश्रवे भाषणे, तर्जने भर्त्सने ताडने पीडने !
अङ्कने दम्भने मुण्डने सेवने, बाधने वर्तने मर्दने छेदने ।। १६७१ ।।
अर्थ - हे क्षपक ! मनुष्य पर्याय में भी तुमने स्वामी आदि के द्वारा कहे गये कठोर वचन, निष्ठुर वचन, नहीं सुनने योग्य भी गाली आदि के अयोग्य वचन सुने थे। उनके द्वारा तर्जना, भर्त्सना, ताड़ना एवं उनके द्वारा दी गई पीड़ा सहन की थी। रात्रि जागरण कर रोकड़ आदि मिलाना, दूसरों के द्वारा छले जाना, राजादि के द्वारा मुण्डन करा देना, धनाढ्यों की सेवा चाकरी करना, अपने इच्छित कार्यों में स्वामी आदि के द्वारा बाधा डालना, दूसरों के द्वारा किये जाने वाले निन्द्य बर्ताव सहन करना, कुपित मनुष्यों के द्वारा काँटों आदि पर सुलाकर घोर मर्दन करना एवं नाक, कान आदि का छेदन करना ये सब दुख तुमने अनेक बार सहन किये थे । १६७१ ।। दुःसहं किङ्करीभूतः करणे निन्द्य - कर्मणः । यदवापश्चिरं दुःखं, तन्निवेशय मानसे ।। १६७२ ।।
अर्थ - दूसरों का किंकर होकर पराधीन हो चिरकाल तक निन्द्य कार्य किये और आयु पर्यन्त असह्य दुख सहे । हे क्षपकराज ! तुम इन सब दुखों का हृदय में विचार कर चिन्तन करो ॥१६७२ ॥