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मरणकण्डिका - ४५४
नरकों में उष्ण-शीत की महत्ता क्षिप्तः श्नभ्रावनी क्षिप्रं, मेरु-मानोऽपि सर्वथा।
उष्णामुर्वीमनासाद्य, लोह-पिण्डो विलीयते॥१६४१ ।। अर्थ - उष्ण नरकों में इतनी भयंकर उष्णता है कि यदि कोई देव-दानव मेरु बराबर लोहपिण्ड को उष्ण नरकों में फेंके तो वह लोहपिण्ड वहाँ की भूमि को प्राप्त होने के पूर्व मार्ग में ही विलीन हो जाएगा अर्थात् पिघल जाएगा ||१६४१ ॥
क्षिप्तस्तत्राग्निना तप्तो, मेरु-मात्रः सहस्रधा।
शीतामवनिमप्राप्य, लोह-पिण्डो विशीर्यते ।।१६४२॥ अर्थ - उसी प्रकार अग्नि से तपे/पिघले हुए उस मेरु प्रमाण लोहपिण्ड को यदि शीत-नरकों में फेंक दिया जाय तो उन शीत-पृथिवियों को प्राप्त होने के पूर्व मार्ग में ही वह हजारों खण्डरूप में विशीर्ण हो जाय अर्थात् जमकर खण्ड-खण्ड हो जाय ।।१६४२ ।।
शारीरिक वेदना की कल्पना तादृशी वेदना श्वभ्रे, घोर-दुःखे निसर्गजा।
यादृशी चूर्णितस्यास्ति, क्षिप्त-क्षारस्य चेततः ।।१६४३॥ अर्थ - किसी मूर्छा रहित मनुष्य के शरीर को मुद्गर आदि से पीट/कुचल कर खारे जल में डाल दिये जाने पर जैसी वेदना होती है, वैसी ही वेदना घोर दुखों से भरे हुए नरकों में स्वभावतः होती है ॥१६४३ ।।
यच्छ्वभ्रावसथे भीमे, प्राप्नोहःखमनेकधा।
निशितैः कण्टकैलॊहैस्तुधमानः समन्ततः॥१६४४ ।। अर्थ - उस भयंकर नरक भूमि में पैने/नुकीले लोहमयी काँटों के द्वारा चारों ओर से छेदे जाकर तुम अनेक बार दुखों को प्राप्त हो चुके हो । (उनका स्मरण करो)।।१६४४ ॥
यच्छूले कूट-शाल्मल्यामसिपत्र-वने गतः।
सर्वतो भक्ष्यमाणोऽयं, का-काकादि-पक्षिभिः ।।१६४५॥ अर्थ - जहाँ कूट शाल्मलि वृक्ष हैं ऐसे असिपत्र वन में जाने पर तुम सब ओर से कंक और काक आदि पक्षियों के द्वारा खाये गये थे॥१६४५ ।।
प्रश्न - नरकों में वृक्ष एवं वन आदि होते हैं? तथा कूट शाल्मली वृक्ष और असिपत्र वन किसे कहते
उत्तर - नरक भूमियों में वृक्षादि वनस्पतियाँ नहीं होती। नारकी जीव अपृथक् विक्रिया द्वारा स्वयं वृक्ष एवं वनादि का रूप धारणकर अन्य नारकियों को दुख देते हैं। शाल्मली वृक्ष काँटों से घिरे हुए होते हैं जिनमें से कुछ काँटे ऊपर की ओर मुख वाले और कुछ नीचे की ओर मुख वाले होते हैं, उन्हें कूट शाल्मली वृक्ष कहते