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मरणकण्डिका - ४५६
ततायः प्रतिमाकीर्णे, यत्प्राप्तो लोह-मण्डपे।
आयसं पाय्यमानोऽपि, प्रतप्तं कललं कटु ॥१६४७॥ अर्थ - लोहे से निर्मित मण्डप में तपाये हुए लोहे से बनी प्रतिमारूपी युवतियों से बलपूर्वक आलिंगन कराये जाने पर तथा खारा, कडुवा और तपा हुआ लोहा एवं कलल पिलाये जाने पर जो भयंकर दुख तुमने वहाँ भोगे हैं उनका स्मरण करो॥१६४७ ।।
प्रश्न - कलल किसे कहते हैं ? उत्तर - ताम्बा, सीसा, सज्जी एवं गूगलादि को पका कर जो काढ़ा बनाया जाता है, उसे कलल कहते
हैं
दुःस्पश्य खाद्यमानो यल्लोहमङ्गार-सञ्चयम् ।
पच्यमानः कन्दकासु, मण्डका इव रन्धितः ।।१६४८॥ अर्थ - हे क्षपक ! जिनका स्पर्श करना भी कठिन है ऐसे धधकते हुए लोहे के अंगार वहाँ तुम्हें बल पूर्वक खिलाये गये और तुम्हें कड़ाही में डालकर मंडकों के समान तला गया। उनका स्मरण करो॥१६४८ ।।
चूर्णित: कुट्टितश्छिन्नो, यन्मुद्गर-मुसण्डिभिः ।
बहुशः खण्डितो लोकैर्यच्छ्वभ्र-स्थैरितस्ततः ॥१६४९ ।। अर्थ - नरकों में इधर-उधर से आने-जाने वाले नारकी जीवों द्वारा तुम अनेक बार चूर्ण-चूर्ण कर दिये गये, कूटे गये, खण्ड-खण्ड कर दिये गये और मूसल एवं मुसंडी आदि के द्वारा छिन्न-भिन्न कर दिये गये थे।।१६४९ ।।
प्रश्न - नरकों में नारकी जीवों को क्या-क्या दुर्लभ है? और उन्हें अन्य क्या-क्या दुख दिये जाते हैं? अथवा भोगने पड़ते हैं?
उत्तर - अनुकूल क्रिया, मिष्ट भाषा, सज्जनता, नम्रता, लज्जा, सुख-शीलता, परोपकार, दया, क्षमा, प्रसन्नता, दान, इन्द्रियदमन, मार्दव आदि जितने भी प्रशस्त सुगुण श्रेष्ठ पुरुषों में होते हैं वे गुण नारकी जीवों में वैसे ही दुर्लभ हैं जैसे घनघोर जंगल में मनुष्यों का मिलना दुर्लभ है।
मनुष्यादि लोक में शत्रु, मित्र एवं उदासीन, ऐसे तीन प्रकार के प्राणी होते हैं किन्तु नरकों में सब नारकी एक दूसरे के शत्रु ही होते हैं। वे अपने विभंग ज्ञान से पूर्वजन्म के बैरों का स्मरण कर और क्रोध से भर कर वज्र, बाण, करोंत, नख, गदा, मूसल, शूल, भाला, लोष्ट, शंकु, शक्ति, तलवार, छुरी, भाला, दण्डा, गुर्ज एवं पाषाण से निर्मित शस्त्र तथा अन्य भी अनेक तीक्ष्ण अस्त्र-शस्त्रों से जो वहाँ की पृथिवी के स्वभाव से स्वयं उत्पन्न हो जाते हैं तथा विक्रिया से निर्मित आयुधों से परस्पर मारते हैं, छेदते हैं, भेदते हैं, कोंचते हैं, लोचते हैं, बींधते हैं, खाते हैं और प्रहार करते हैं। अन्य नारकी कुत्ता, भेड़िया, सियार, व्याघ्र, गृद्ध एवं सिंह आदि की विक्रिया बनाकर परस्पर अनिर्वचनीय कष्ट देते हैं। कुछ नारकी काष्ठ, पर्वत और शिलारूप बनकर दूसरे नारकियों पर बरसते हैं, कुछ नारकी जल बनकर दूसरों को डुबाते हैं, कुछ वायु बनकर उड़ाते हैं और कुछ अग्नि बनकर जलाते हैं । वे