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मरणकण्डिका - ४५३
कुछ सह लिया और अन्तमें अपने-अपने भावों की पवित्रता के अनुसार उनमें से कितने ही तपोधन मोक्ष गये और कितने ही स्वर्ग गये।
अमी तपोधनाः प्राप्ताः, स्वार्थमेकाकिनो यदि ।
अध्यास्य वेदनास्तीव्राः, निःप्रतीकार-विग्रहाः ।। १६३६ ।।
चतुर्विधेन सचेन, विनीतेन निषेवितः ।
तदाराधयसे न त्वं, देवीमाराधनां कथम् ।। १६३७ ।।
अर्थ - इस प्रकार यदि ये मुनिराज उपरूनों का प्रतिकार किये बिना को सहन करते हुए एकाकी होकर भी रत्नत्रय को प्राप्त हुए थे तब तो विनयवान् चतुर्विध संघ द्वारा सेवित तुम आराधनादेवी की आराधना क्यों नहीं कर सकते ? अर्थात् कैसे नहीं कर सकते ? ।।१६३६ - १६३७ ।।
कर्णाञ्जलिपुटैः पीत्वा, जिनेन्द्र वचनामृतम् ।
सङ्घ-मध्ये स्थितः शक्तः, स्वार्थ साधयितुं सुखम् ।। १६३८ ॥
अर्थ- हे क्षपक ! संघ के मध्य कर्णरूपी अंजुलिपुटों द्वारा जिनेन्द्रदेव की वाणी रूप अमृत पीकर मोक्षरूप अपना स्वार्थ सुखपूर्वक साध लेना तुम्हारे लिए इस समय सरल है ।। १६३८ ।।
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चतुर्गति के दुखों का स्मरण
श्वभ्र - तिर्यतर - स्वर्ग-सुख - दुःखानि सर्वथा ।
त्वं चिन्तय महाबुद्धे - भव- लब्धान्यनेकशः ॥ १६३९ ॥
अर्थ- हे क्षपक ! हे महाबुद्धे ! अतीत काल में अनेक बार नरकगति, तिर्यंच-गति, मनुष्यगति एवं देवगति के दुखों एवं सुखों को तुमने सब प्रकारसे प्राप्त किया है, उनका अब तुम स्मरण करो अर्थात् एकाग्र मन से चिन्तन करो । १६३९ ॥
नरके वेदनाचित्रा, दुःसहासात - दायिनी ।
देहासक्त-तया प्राप्ताश्विरं यास्ता विचिन्तय ।।१६४० ॥
अर्थ - हे क्षपक ! शरीर से मोह करने के कारण नरकों में तीव्र असाता को देने वाली नाना प्रकार की वेदनाओं को जो चिरकाल तक भोगा है, तुम उनका स्मरण करो / चिन्तन करो ।। १६४० ।।
प्रश्न शरीर में मोह करने से नरक में क्यों जाना पड़ता है ?
उत्तर - यथार्थतः तो मोह ही सबसे बड़ा पाप है, यह सर्व दुखों का मूल है । असाताजन्य जो वेदनाएँ नरक में हैं उस प्रकार की वेदनाएँ जगत् में अन्यत्र कहीं नहीं हैं और इन वेदनाओं का मूल कारण शरीर है, क्योंकि शरीरासक्त मनुष्य संयम धारण नहीं कर सकते। संयम के बिना वे असातावेदनीय कर्म का तीव्र बन्ध करते हैं और नरक चले जाते हैं। नरक में उस असाता का प्रचुरता से उदय आता रहता है। इस प्रकार कारण की बहुलता से वेदना रूप कार्य निरन्तर होता रहता है।