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मरणकण्डिका - ४५२
धाराएँ फूट पड़ी। मुनिराज ने उपसर्ग प्रारम्भ होते ही प्रायोपगमन संन्यास ग्रहण कर लिया और चारों आराधनाओं में संलग्न होते हुए अन्तकृत केवली होकर मोक्ष पधारे।
यन्त्रेण पीड्यमानाङ्गाः, प्राप्ताः पञ्च-शतः प्रमाः।
कुम्भकारकटे स्वार्थमभिनन्दन-पूर्वगाः॥१६३४ ।। अर्थ - कुम्भकारकट नामक नगर में अभिनन्दनादि पाँच सौ महामुनिराज यन्त्र में अर्थात् कोल्हू में पेल दिये जाने पर भी रत्नत्रय की आराधना करके उत्तमार्थ को प्राप्त हुए ।।१६३४ ।।
* आभनंदन आदि पांचसी मुनिराजोंकी कथा * दक्षिण भारतमें स्थित कुम्भकारकट नगरके राजा का नाम दण्डक, रानी का नाम सुव्रता और राजमन्त्री का नाम बालक था। बालक मन्त्री जैनधर्म का विरोधी और अभिमानी था। एक समय उस नगरमें अभिनन्दन आदि पाँच सौ मुनिराज पधारे। मन्त्री बालक उनसे शास्त्रार्थ करनेके लिए जा रहा था। मार्गमें उसे खण्डक नामके मुनिराज मिले और वह उन्हीं से विवाद करने लगा। महाराजश्री के स्याद्वाद सिद्धान्त के सामने वह एक क्षण भी न टिक सका और लज्जित होता हुआ घर लौट गया, पर उसके हृदय में अपमान की आग धधकने लगी। उसकी शान्ति के लिए उसने एक भांड को मुनि बनाकर रानी सुव्रता के महल में भेज दिया और राजा को वहीं लाकर खड़ा कर दिया। उस मुनि भेषी भांड की कुत्सित क्रियाएँ देखकर राजा क्रोध से अन्धा हो गया और उसने उसी समय आदेश दिया कि नगरमें जितने दिगम्बर साधु हों वे सब पानी में पेल दिये जाँय । मन्त्री तो यह चाहता ही था। उसने तत्काल सब मुनिराजों को घानी में पेल दिया । इस महान् दुःसह उपसर्ग को प्राप्त होकर भी साधु समूह अपने साम्य-भाव से विचलित नहीं हुआ और उसने उत्तमार्थ को प्राप्त किया।
कुलालेऽरिष्ट-संज्ञेन, दग्धायां वसतौ गणी।
साधं वृषभसेनोऽगादुत्तमार्थं तपोधनैः ।।१६३५॥ अर्थ - कुलाल नामक नगर में अरिष्ट नामक दुष्ट मन्त्री के द्वारा वसतिका में आग लगा देने के कारण आचार्य वृषभसेन अपने संघस्थ साधुओं के साथ रत्नत्रय स्वरूप आराधनाओं को प्राप्त हुए ||१६३५॥
* आचार्य वृषभसेनकी कथा * दक्षिण दिशा की ओर बसे हुए कुलाल नगरके राजा वैश्रवण बड़े धर्मात्मा और सम्यग्दृष्टि थे। इनका मंत्री इनसे बिल्कुल उल्टा मिथ्यात्वी और जैनधर्मका बड़ा द्वेषी था। सो ठीक ही है, चन्दन के वृक्षों के आसपास सर्प रहा ही करते हैं । एक दिन वृषभसेन मुनि अपने संघ को साथ लिये कुलाल नगर की ओर आये। वैश्रवण उनके आने का समाचार सुन बड़ी विभूति के साथ भव्यजनों को संग लिये उनकी वन्दना को गये। भक्ति से उसने उनकी प्रदक्षिणा की, स्तुति की, वन्दना की और पवित्र द्रव्यों से पूजा की तथा उनसे जैनधर्म का उपदेश सुना। मंत्री ने मुनियों का अपमान करने की गर्ज से उनसे शास्त्रार्थ किया, पर अपमान उसी का हुआ। मुनियों के साथ उसे हार जाना पड़ा। इस अपमान की उसके हृदय पर गहरी चोट लगी। इसका बदला चुकाने का विचार कर वह शाम को मुनिसंघ के पास आया और जिस स्थानमें संघ ठहरा था उसमें उस पापी ने आग लगा दी। पर तत्त्वज्ञानी, वस्तुस्थिति को जानने वाले मुनियों ने इस कष्ट की कुछ परवाह न कर बड़ी सहनशीलताके साथ सब