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मरणकण्डिका - ४४५
हो गया। दीक्षा लेकर पणिक मुनिराज अनेक देशोंमें विहार करते हुए गंगापार करनेके लिए एक नावमें बैठे। मल्लाह सुचारु-रीत्या नाव खे रहा था कि अचानक भयंकर आँधी आई, नाव डगमगाने लगी, उसमें पानी भर गया, फलस्वरूप नाव डूबने ही वाली थी कि पणिक मुनिराज विशेष आत्म-विशुद्धि के साथ शुक्लध्यान में लीन हो गये और केवलज्ञान की प्राप्तिके साथ ही उन्होंने मोक्ष प्राप्त कर लिया।
अवमोदर्य-मन्त्रेण, भद्रबाहुमहामनाः।
बुभुक्षा-राक्षसी जित्वा, स्वीचकारार्थमुत्तमम् ॥१६२४॥ __ अर्थ - भद्रबाहु नामक महामुनिराज ने अवमोदर्यतप रूप मन्त्र द्वारा क्षुधारूपी राक्षसी को जीतकर उत्तम रत्नत्रय रूप महाअर्थ को प्रास किया ॥१६२४ ।।
मासोपवास-सम्पन्नश्चम्पायां तृड्-ज्वरादितः ।
धर्मघोषो मुनिः प्राप्तः, स्वार्थ गङ्गानदी-तटे॥१६२५ ॥ अर्थ - चम्पानगरी में गंगानदी के तट पर एक मास के उपवास करने वाले धर्मघोष नामक महामुनि तीव्र प्यास से पीड़ित होकर आराधनाओं की आर.' : को हुए मोदा धाः ।।१६१५ ।
* धर्मघोष मुनिकी कथा * धर्ममूर्ति परम तपस्वी धर्मघोष मुनिराज एक माहके उपवास करके चम्पापुरी नगरमें पारणाके अर्थ गये थे। पारणा करके तपोवन की ओर लौटते हुए रास्ता भूल गये जिससे चलनेमें अधिक परिश्रम हुआ और उन्हें तृषा वेदना उत्पन्न हो गई। वे गंगा किनारे आकर एक छायादार वृक्षके नीचे बैठ गये। उन्हें प्याससे व्याकुल देख गंगादेवी पवित्र जलसे भरा हुआ लोटा लाकर बोली-“योगिराज ! मैं ठण्डा जल लाई हूँ, आप इसे पीकर अपनी प्यास शांत कीजिए।" मुनिराज ने जल तो ग्रहण नहीं किया और प्राण हरण करने वाली तृषा वेदनाके मात्र ज्ञाता द्रष्टा बनते हुए ध्यानारूढ़ हो गये। यह देखकर देवी चकित हुई और विदेह क्षेत्र जाकर उसने समवसरणमें प्रश्न किया कि जब मुनिराज प्यासे हैं तो जल ग्रहण क्यों नहीं करते ? वहाँ गणधर-देवने उत्तर दिया कि दिगम्बर साधु न तो असमय भोजन-पान ग्रहण करते हैं और न देवों द्वारा दिया गया आहार आदि ही ग्रहण करते हैं। यह सुनकर देवी बहुत प्रभावित हुई और उसने मुनिराजको शांति प्राप्त कराने हेतु उनके चारों ओर सुगन्धित और ठण्डे जलकी वर्षा प्रारम्भ कर दी। यहाँ मुनिराज ने आत्मोत्थ अनुपम सुखके रसास्वाद द्वारा कर्मोत्पत्र तृषा वेदना पर विजय प्राप्त की और चार घातिया कर्मोका नाश करके केवलज्ञान प्राप्त किया।
पूर्व-काराति-देवेन, कृतैः शीतोष्ण-मारुतैः।
श्रीदत्तः पीड्यमानोऽपि, जग्राहाराधनां सुधीः ॥१६२६ ॥ अर्थ - पूर्व भव के वैरी देव द्वारा विक्रिया पूर्वक किये गये शीत एवं उष्ण वायु से पीड़ित होते हुए भी बुद्धिमान श्रीदत्त नामक महामुनिराज ने सम्यक्त्वादि चारों आराधनाएँ ग्रहण की थीं ॥१६२६ ।।