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मरणकण्डिका - ४४७
समय था, धूप तेज पड़ रही थी। मुनिराज एक पवित्र शिलापर बैठकर ध्यान करते थे। कड़ी धूपमें इस प्रकारकी योग साधना तथा आत्मतेजसे उनके शरीरका सौन्दर्य इतना देदीप्यमान हो उठा कि लोगोंके मनमें उनके प्रति श्रद्धा अति दृढ़ होती गयी जिससे जैनधर्मका प्रभाव वृद्धिंगत होने लगा। एक दिन महाराज जब शहरमें भिक्षार्थ गये थे तब जैनधर्मद्वेषी एक बौद्ध भिक्षुने दुष्टतासे महाराजके ध्यान करनेके लिये बैठनेकी शिलाको अग्निसे तपा दिया। मुनिराज आहारसे लौटे, शिला को संतप्त देखसमझ गये कि यह उपसर्ग आया है। उन वीर-धीर मुनिराजने उसी तप्त शिला पर आरूढ़ हो समाधिपूर्वक आराधनाको साधते हुए प्राण त्याग किया और उत्तमगति प्राप्त की।
अग्निराजसुतः शक्त्या विद्धः, क्रौञ्चेन संयतः।
रोहेडकपुरे सोवा, देवीमाराधनां श्रितः ।।१६२८ ।। अर्थ - रोहडक नामक नगर में क्रांच राजा द्वारा शक्ति नामक शस्त्र से वेधे गये अग्निदत्त राजा के पुत्र कार्तिकेय महामुनिराज ने असह्य पीड़ा सहकर भी आराधना देवी के आश्रय से उत्तम गति प्राप्त की ॥१६२८॥
कार्तिकेय मुनिकी कथा * राजा अग्निदत्तके वीरवती रानीसे कृत्तिका नामकी पुत्री हुई। जब वह यौवनवती हुई तो राजा उसपर मोहित हो गया। उसने छलसे राजसभा प्रश्न किया कि राजमहलमें जो भी पदार्थ हैं उन सबका स्वामी कौन होता है? मंत्री आदिने कहा, आप ही तो स्वामी हैं। किन्तु वहाँ पर उपस्थित जैन मुनिने कहा राजन्! कन्याओंको छोड़कर और सब पदार्थों के स्वामी आप हैं। राजाको यह मुनिवाक्य रुचा नहीं । रुचता भी कैसे ? कामीको कभी गुरुके वाक्य रुचते नहीं। राजाने जबरदस्ती अपनी पुत्री कृत्तिकाके साथ विवाह कर लिया।
कुछ समय बाद उसके दो संतानें हुई - एक पुत्र और एक पुत्री । यथा समय पुत्री वीरमतीका विवाह रोहेडक नामक नगरके राजा क्रौंचके साथ हुआ। पुत्र कार्तिकेय अभी अविवाहित था। एक दिन मित्रोंके यहाँ उनके नानाके घरसे आये वस्त्राभूषण देख उसने मातासे प्रश्न किया कि हमारे नानाके यहाँसे वस्त्राभूषण क्यों नहीं आते ? पुत्रका प्रश्न सुनकर माताके हृदयपर मानों वज्रपात ही हुआ। नयन नीरसे भर आये। माताकी दशा देखकर पुत्रने कारण पूछा। बहुत हठ करनेपर माताने सब कह डाला कि तुम्हारा पिता ही तुम्हारा नाना है, कार्तिकेयका हुदय ग्लानिसे भर गया। उसने कहा माता ! ऐसा कुकृत्य करते हुए राजा को किसी ने नहीं रोका? माता ने कहा-जैनमुनिने रोका था किन्तु राजा ने सुना नहीं, उलटे उन मुनिको नगरसे बाहर निकलवा दिया। कार्तिकेय का मन वैराग्ययुक्त हुआ। उसने वनमें जाकर मुनिराजसे जिनदीक्षा ग्रहण की। क्रमशः विहार करते हुए कार्तिकेय मुनि रोहेडक नगरीमें आये जहां उनकी बहिन राजा क्रौंच से ब्याही थी। मुनिराज को राजमार्ग से आते हुए देखकर वीरमती बहिन ने उन्हें पहिचान लिया और धर्मप्रेम तथा भ्राता प्रेमसे विह्वल हो समीपमें बैठे राजाको बिना पूछे ही वह शीघ्रता से महलसे उतरकर मुनिराजके चरणोंमें गिरी। राजा विधर्मी था, मुनिके
रूप को नहीं जानता था। उसने क्रोधमें आकर कर्मचारियोंको आज्ञा दी कि इस व्यक्ति की चमडी-चमडी छील डालो । कर्मचारियों द्वारा मुनिराज पर महान् उपसर्ग प्रारंभ हुआ। उनका सारा तन छेदा गया किन्तु भेदज्ञानी परम ध्यानमें लीन मुनिराज ने अत्यंत शांत भावसे सल्लेखना पूर्वक प्राणत्याग किया। धन्य है कार्तिकेय मुनिराज जिन्होंने घोर वेदनामें भी आत्मध्यान नहीं छोड़ा।