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मरणकण्डिका - ४३१
अर्थ - जिस प्रकार से मेरी आत्मा संसार-समुद्र से पार हो, जिस प्रकार से आपको परम सन्तुष्टि प्राप्त हो तथा मेरे कल्याण में संलग्न आपका एवं सर्वसंघ का परिश्रम सफल हो, मैं उसी प्रकार का आचरण और तप करूँगा ।।१५६१॥
यथात्मनो गणस्यापि, कीर्तिरस्ति प्रधीयसी।
अहमाराधयिष्यामि, तथा सङ्घ-प्रसादतः ॥१५६२ ॥ अर्थ - भो गुरुदेव ! जिस प्रकार मेरी और संघ की कीर्ति विस्तार से फैले, मैं सर्व संघ की कृपा से उसी प्रकार रत्नत्रय की आराधना करूँगा।।१५६२ ।।
याराधिता महाधीरैरधीरैर्मनसापि नो।
अस्तायां साधयिष्यामि, देवीमाराधनामहम् ।।१५६३ ॥ अर्थ - हे पूज्यवर! महाधीर-वीर पुरुषों ने जो आराधना की है, या रत्नत्रय की वृद्धि के लिए जो आधा किया, पुरुष जिमीन से कल्पना भी नहीं कर सकते, पापों को नष्ट करने वाली उस आराधना देवी की मैं सिद्धि करूँगा ।।१५६३॥
तवोपदेश-पीयूषं, पीत्वा को नाम पावनम् ।
विभेतीह क्षुधादिभ्यः, कातरोऽपि नरः प्रभो ! ॥१५६४॥ अर्थ - हे प्रभो ! आपके धर्मोपदेशरूपी पवित्र अमृत को पीकर कौन कायर भी मनुष्य भूख-प्यास एवं मृत्यु आदि से डरेगा ? अपितु कोई भी नहीं डरेगा ।।१५६४॥
पलालैरिव निःसारैर्बहुभिर्भाषितैः किमु।
प्रत्यूह-करणे शक्तो, न मे शक्रोऽपि निश्चितम् ॥१५६५ ।। अर्थ - घास-फूस के सदृश बहुत अधिक बोलने से क्या प्रयोजन, आपकी अनुकम्पा से इन्द्रादि देव भी मेरी आराधना में नियमतः विघ्न उत्पन्न नहीं कर सकते ॥१५६५ ।।
ध्यान-विघ्नं करिष्यन्ति, किं क्षुधादि-परीषहाः।
कषायाक्ष-द्विषो वा मे, त्वत्प्रसादमुपेयुषः ॥१५६६॥ अर्थ - हे गुरुदेव ! आपकी कृपा को प्राप्त हुए मुझ क्षपक के ध्यान में ये भूख-प्यास आदि परीषह और कषाय एवं इन्द्रियरूपी शत्रु क्या विघ्न कर सकते हैं ? अर्थात् कुछ भी नहीं कर सकते ।।१५६६॥
स्थानतश्चलति नाक-पर्वतः, पुष्करं वसुमतिं प्रपद्यते ।
त्वत्प्रसादमुपगम्य न प्रभो ! जातु यामि विकृतिं मनागपि॥१५६७ ॥ अर्थ - हे प्रभो ! कदाचित् सुमेरु पर्वत अपने स्थान से चलायमान हो जाये और पुष्कर अर्थात् सरोवर पृथिवीपने को प्राप्त हो जावे किन्तु आपके अनुग्रह से मैं किंचित् भी विकार को प्राप्त नहीं होऊँगा ॥१५६७ ।।