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मरणकण्डेिका - ४३४
वैयावृत्यं ततः कार्य, चिकित्सां जानता स्वयम् ।
वैद्योपदेशतश्चास्य, शक्तितो भक्तित: सदा॥१५७६ ॥ अर्थ - अत: उस क्षपक के रोग की चिकित्सा जानने वाले निर्यापकाचार्य को स्वयं अथवा चतुर वैद्य के परामर्श से शक्ति और भक्ति पूर्वक मदा नैयावृत्य करना गहिए ।।१५५७६ ।।
विज्ञाय विकृति तस्य, वेदनाया: प्रतिक्रिया।
औषधैः पानकैः कार्या, वात-पित्त-कफापहः॥१५७७ ।। अर्थ - उस क्षपक की वेदना के विकार को जानकर वात, पित्त या कफ की नाशक प्रासुक पेय औषधि द्वारा उसका प्रतिकार करना चाहिए ॥१५७७ ॥
अभ्यङ्ग-स्वेदनालेप-वस्ति-कङ्गि-मर्दनैः ।
परिचर्या-परेणापि, कृत्यास्य परिकर्मणा ।।१५७८ ।। अर्थ - तेल लगाना, पसीना लाना, लेप लगाना, वस्तिकर्म अर्थात् एनिमा लगाना, अंग मर्दन करना, गर्म पानी से सेकना अथवा शीतल आदि अन्य-अन्य उपचार करके क्षपक की वेदना को शमन करने योग्य परिचर्या करनी चाहिए।॥१५७८॥
कस्यचित् क्रियमाणेऽपि, बहुधा परिकर्मणि।
पाप-कर्मोदये तीव्र, न प्रशाम्यति वेदना ॥१५७९ ।। अर्थ - इस प्रकार अनेक उपचार किये जाने पर भी तीव्र पाप-कर्म के उदय से कभी क्षपक की वेदना शान्त नहीं होती है।।१५७९ ।।
प्रश्न - उपचार के उपरान्त भी वेदना शान्त क्यों नहीं होती ?
उत्तर - यह अनुभव सिद्ध बात है कि जो बाह्य औषधि किसी व्यक्ति के रोगसमन में सहायक होती देखी जाती है वही औषधि किसी अन्य के उसी रोगशमन में सहायक नहीं होती है। इसका कारण है कि अन्तरंग कारण के बिना मात्र बाह्य कारण से कार्य सम्पन्न नहीं होते। पुण्योदय के योग में ही औषधि आदि बाहा द्रव्य अपना कार्य करने में समर्थ होते हैं।
क्षपको जायते तीबेरुपसर्ग-परीषहैः।
अभिभूतः परायत्तो, विह्वलीभूत-चेतनः ॥१५८० ।। अर्थ - तीव्र उपसर्गों से अथवा भूख-प्यासादि परीषहों से अभिभूत होता हुआ क्षपक कभी-कभी वेदना के आधीन हो जाता है, जिससे उसकी चेतना विह्वल हो जाती है अर्थात् वह क्षपक मूर्छित हो जाता है।।१५८०॥
व्याकुलो वेदना-ग्रस्तः, परीषह-करालितः। प्रलपत्य-निबद्धानि, वाक्यानि स विचेतनः ॥१५८१॥