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मरणकण्डिका - ४३७
परीषहातुरः कश्चिज्जानानोऽपि न बुध्यते।
आर्तः पूत्कुरुते दीनो, मर्यादां च बिभित्सति ॥१५९० ॥ अर्थ - कोई क्षपक चेतना को प्राम करके भी कर्मोदय से परीषहों की वेदना से पीड़ित होकर अपने ग्राह्य चारित्र का बोध नहीं कर पाता है तथा दुखी होता है, या चिल्लाता है, दीन होता है, रोता है और अपनी व्रत प्रतिज्ञा को भंग करना चाहता है।।१५९० ॥
न बिभीष्य: स नो वाच्यो, वचनं कटुकादिकम् ।
न त्याज्य: सूरिणा तस्य, कर्तव्यासादना न च ॥१५९९ ।। अर्थ - इस प्रकार क्षपक की विपरीत चेष्टा देखकर भी आचार्य भय न दिखावें, कटुवचन न कहें, उसका तिरस्कार न करें और उसका त्याग न करें ||१५९१ ॥
कठोर व्यवहार से हानि विगधिन भवन्मानो अन्ननैः कनकादिभिः ।
जिघृक्षत्यसमाधानं, प्रत्याख्यानं जिहासति ।।१५९२ ॥ अर्थ - क्योंकि कटुक वचनादि से विराधित होने वाला क्षपक भड़क कर अशान्ति या आर्तध्यान कर सकता है और अपने द्वारा ग्राहय संयमादि को छोड़ने की भी इच्छा कर सकता है।।१५९२ ।।
निर्यापकेन मर्यादां, तस्य मनु मुमुक्षतः।
कर्तव्यः कवचो गाढः, परीषह-निवारणः॥१५९३॥ ___ अर्थ - यदि क्षपक अपनी प्रतिज्ञारूपी मर्यादा को तोड़ने का इच्छुक है तो निर्यापकाचार्य का कर्तव्य है कि उसकी रक्षा के लिए वात्सल्य पूर्वक ऐसा गाढ़ कवच करें जो परीषहों का निवारण कर सके ।।१५९३ ।।
गम्भीरं मधुरं स्निग्धमादेयं हृदयङ्गमम् ।
सूरिणा शिक्षणीयोऽसौ, प्रज्ञापन-पटीयसा ॥१५९४ ।। __ अर्थ - समझाने की कला में निपुण आचार्य को गम्भीर, मधुर, स्निग्ध एवं हृदय में प्रवेश कर जाने वाली शिक्षा द्वारा उसे धीरे-धीरे समझा कर विश्वास में लेना चाहिए ।।१५९४ ॥
सन्तोष-बलतस्तीवास्ता रोगान्तक-वेदनाः।
अकारतो जयामूढो, वृत्त-विघ्नं च सर्वथा ॥१५९५ ।। अर्थ - हे क्षपक ! तुम कायरता एवं मूढ़ता को छोड़ो, सावधान होओ और चारित्र में विघ्न डालने के लिए आई हुई इन छोटी-बड़ी व्याधियों को तथा तीव्र वेदना को सन्तोष बल से सर्वथा नष्ट कर दो॥१५९५ ।।
प्रश्न - चारित्र में विघ्न डालने वाले कौन हैं ?
उत्तर - राग और द्वेष के त्याग का नाम चारित्र है। अतः आचार्यदेव क्षपक को समझाते हैं कि तुम व्याधियों के प्रतिकारक उपायों में एवं उपाय करने वालों में राग मत करो और व्याधियों से एवं उनके द्वारा उत्पन्न वेदनाओं से द्वेष मत करो, क्योंकि ये राग-द्वेष ही चारित्र रूपी सम्पत्ति को लूटने वाले हैं।