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मरणकण्डिका - ४४१
वेदनायामसयायां, कुर्वन्त्यज्ञानिनो धृतिम् । लेश्यया भव-वर्धिन्या, सुखास्वादपरा यदि ॥१६१०॥ तदा धृतिं न कुर्वन्ति, किं भवच्छेदनोद्यताः ।
ज्ञात "संसार-न:सायां, बेदनायां तपोधनाः ।।१६११ ।। अर्थ - यदि संसार को वृद्धिंगत करने वाली अशुभ लेश्या से युक्त अनेक अज्ञानी मनुष्य सांसारिक या इन्द्रियजन्य सुख-स्वाद की लालसा से तीव्र वेदना भी धैर्यपूर्वक सहम कर लेते हैं, तब जो तपोधन क्षपक संसार की नि:सारता को भली प्रकार जानते हैं और संसार का उच्छेद करने में उद्यतशील हैं, वे तपोधन मुनिराज क्या वेदना के आने पर धैर्य धारण नहीं करेंगे ? अवश्य ही धैर्य धारण करेंगे ॥१६१०-१६११॥
दुर्भिक्षे मरके कक्ष-भये रोगे दुरुत्तरे।
मानं क्वापि विमुञ्चन्ति-कुलीना जातु नापदि ।।१६१२ ।। अर्थ - दुर्भिक्ष में, मरी आदि रोग में, भयानक वन में, अत्यन्त प्रगाढ़ रोग में और अनेक आपत्तियों में भी कुलीन पुरुष कभी अपना स्वाभिमान नहीं छोड़ते हैं ।।१६१२॥ .
सेवन्ते मद्य-गोमांस-पलावादि न मानिनः ।
कर्मान्यदपि कृच्छ्रेऽपि, लज्जनीयं न कुर्वते ॥१६१३॥ अर्थ - कुल का स्वाभिमान रखने वाले सामान्य गृहस्थजन प्रतिकूल परिस्थिति उपस्थित हो जाने पर भी शराब नहीं पीते, गोमांस एवं लहसुन-प्याज आदि नहीं खाते तथा अन्य भी निन्दनीय कन्दादि का सेवन नहीं करते। इसी प्रकार अन्य भी कोई लज्जास्पद कार्य नहीं करते ॥१६१३ ।।
कुल-सङ्घ-यशस्कामाः, किं कर्म-जगदर्चिताः।
मानं विमुच्य कुर्वन्ति, लज्जनीयं तपोधनाः ॥१६१४॥ अर्थ - जन सामान्य गृहस्थों की यह बात है तब फिर जो कुल, गण एवं संघ के यश की कामना करने वाले हैं और जगत् पूज्य हैं वे साधु अपना स्वाभिमान त्याग कर लज्जाजनक पद के विपरीत कार्य करेंगे क्या? अर्थात् नहीं करेंगे॥१६१४ ।। ।
लघ्वी विपत्तिमुर्वी, वा यः प्रयातो विषीदति ।
नरा वदन्ति तं षण्ढं, धीरा: पुरुष-कातरम् ॥१६१५॥ अर्थ - जो छोटी-बड़ी विपत्ति आने पर खेद-खिन्न होता है, धीर-वीर पुरुष उस कायर को नपुंसक कहते हैं ।।१६१५॥
समुद्रा इव गम्भीरा, नि:कम्पाः पर्वता इव ।
विपद्यपि महिष्ठायां, न क्षुभ्यन्ति महाधियः ॥१६१६ ॥ अर्थ - महाबुद्धिमान् सज्जन पुरुष महती विपत्ति आ जाने पर भी कभी क्षुब्ध नहीं होते, वे समुद्र सदृश गम्भीर एवं सुमेरु सदृश अकम्प रहते हैं।१६१६ ।।