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मरणकण्डिका - ४३९
जन-मध्ये भुजास्फालं, विधाय बल-गर्षितः।
कः कुलीनो रणे मानी, शत्रु-त्रस्तः पलायते ॥१५९८॥ अर्थ - जन समुदाय के बीच अपनी भुजाओं को ठोक-ठोक कर युद्ध में शत्रुओं को हराने की घोषणा करने वाला कुलीन एवं स्वाभिमानी कौन ऐसा योद्धा है जो सामने आये हुए शत्रु से डर कर भाग जायगा ?॥१५९८॥
कः कृत्वा स्व-स्तव, मानी, सङ्च मध्ये तपोधनः ।
परीषह-रिपु-त्रस्तः, क्लिश्यत्यापात-मात्रतः ॥१५९९ ॥ अर्थ - ऐसा कौन स्वाभिमानी तपोधन है जो चतुर्विध संघ के मध्य अपनी सम्यक् समाधि की प्रशंसा करके आपत्तियों की प्रतिकूलता में मात्र परीषहरूपी शत्रुओं से त्रस्त हो क्लेशित होगा? अपितु नहीं होगा ॥१५९९ ।।
प्रविशन्ति रणं पूर्व, शत्रु-मर्दन-लालसाः। यच्छन्ति नासु-नाशेऽपि, शत्रूणां प्रसरं पुनः॥१६००॥ मानिनो योगिनो धीराः, परीषह-निषूदिनः ।
सहन्ते वेदना घोराः, प्रपद्यन्ते न विक्रियाम् ॥१६०१॥ अर्थ - जैसे शत्रुओं को पराजित करने की इच्छा से जो शूरवीर योद्धा रण में प्रविष्ट होते हैं वे प्राण नष्ट होने पर भी शत्रुओं के आधीन नहीं होते हैं। वैसे ही स्वाभिमानी योगी धीर-वीर मुनिजन परीषहों को सहन करने वाले होते हैं वे कभी भी कातरता, दीनता एवं तीव्र वेदना की क्लेशता रूप विकारभाव को प्राप्त नहीं होते हैं ।।१६००-१६०१॥
रणारम्भे वरं मृत्युर्भुजा-स्फालन-कारिणः । यावज्जीवं कुलीनस्य, न पुनर्जन-जल्पनम् ॥१६०२।। संयतस्य वरं मृत्युर्मानिनोंऽसक-ताडिनः ।
न दीनत्य-विषण्णत्वे, परीषह-रिपूदये ।।१६०३ ॥ अर्थ - जैसे जनसमूह में भुजा-स्फालन द्वारा युद्ध की प्रतिज्ञा करने वाले कुलीन योद्धा का रणांगण में मरण हो जाना श्रेष्ठ है, किन्तु जीवन-पर्यन्त यह जनापवाद श्रेष्ठ नहीं कि "यह युद्धभूमि से भाग कर आया था" | वैसे ही संघ के मध्य समाधि की प्रतिज्ञा करने वाले स्वाभिमानी संयत का मरण हो जाना श्रेष्ठ है, किन्तु परीषहरूपी शत्रु के आने पर दीनपने और विषादपने का प्रदर्शन करना श्रेष्ठ नहीं है।।१६०२-१६०३ ॥
प्रश्न - संयत का मरण हो जाना श्रेष्ठ क्यों कहा है ?
उत्तर - यहाँ अभिप्राय यह है कि चारित्र या सल्लेखनाव्रत या रत्नत्रय की ग्रहण की हुई प्रतिज्ञा पर अटल होकर रागद्वेष रहित अवस्था का मरण श्रेष्ठ है किन्तु रत्नत्रय से च्युत होना, प्रतिज्ञा भंग करना, चित्त में व्याकुलता होना, भयभीत होना एवं "मैं अब प्रतिज्ञा-पालन में असमर्थ हूँ" ऐसे दीन वचन बोलकर निन्दा के या हास्य के पात्र बनना श्रेष्ठ नहीं है।