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अर्थ
पाता, तब वह असम्बद्ध एवं अयोग्य कुछ भी बकने लग जाता है ।। १५८१ ॥
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मरणकण्डिका ४३५
अथवा वेदनाग्रस्त क्षपक व्याकुलता से या परीषहों की असह्य पीड़ा से स्व वश में नहीं रह
अयोग्यमशनं पानं, रात्रि - भुक्तिं स कांक्षति ।
चारित्र - त्यजनाकांक्षी, जायते वेदनाकुलः ॥ १५८२ ।।
अर्थ - वेदना से आकुलित होता हुआ क्षपक अयोग्य भोजन-पान की एवं रात्रि में भोजन करने की भावना से प्रेरित होता हुआ चारित्र को त्यागने की आकांक्षा करने लगता है ।। १५८२ ॥
तथेति मोहमापन्नः सारणीयो गणेशिना ।
सात कुलेश्वाणः प्रत्यागत-चेतनः ॥ १५८३ ॥
अर्थ - इस प्रकार मोह अर्थात् मूर्च्छा की विषम परिस्थिति से घिरे हुए क्षपक का मूर्च्छाभाव दूर करने के लिए निर्यापकाचार्य उचित सारणा करते हैं। अर्थात् जिस प्रकार क्षपक अपने व्रतादिकों का स्मरण कर सके तथा सावधान हो शुद्ध लेश्या में आ सके उसी प्रकार का प्रयत्न करते हैं ।। १५८३ ।।
सारणा के उपाय
कस्त्वं किं नाम ते कालः, साम्प्रतं कः क्व वर्तसे ।
कोऽहं किं मम नामेति, तं पृच्छति गणी यतिम् ।। १५८४ ।।
अर्थ - आचार्य क्षपक को सावधान करने हेतु पूछते हैं कि तुम कौन हो ? तुम्हारा नाम क्या है ? अभी दिन है या रात्रि है? तुम कौन से देश में रह रहे हो ? बताओ मैं कौन हूँ और मेरा नाम क्या है ।। १५८४ ।। इत्थं क्षपकमापृच्छ्य, चित्तं जिज्ञासता सता ।
वत्सलत्वेन कर्तव्या, सारणा तस्य सूरिणा ।। १५८५ ।।
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अर्थ - इस प्रकार निर्यापकाचार्य क्षपक से बार-बार पूछ कर यह परीक्षा करते हैं कि यह सचेत है अथवा बेसुध है। यदि क्षपक बेसुध है तो वात्सल्य भाव से अर्थात् धर्मस्नेह से प्रेरित हो वे आचार्य संयमरक्षणार्थ उसे सचेत करने का उपाय करते हैं || १५८५ ॥
मुह्यतः क्षपकस्येत्थं यः करोति न सारणम् ।
तेनासौ वर्जितो नूनं, जिनधर्म - इवोज्ज्वलः ।। १५८६ ।।
अर्थ - यदि मोहित हुए उस क्षपक की सारणा नहीं करते हैं अर्थात् व्रतादि का स्मरण दिलाने का उपाय नहीं करते हैं तो समझना कि आचार्य ने नियमतः क्षपक का त्याग किया है और क्षपक का त्याग ही उज्ज्वल जिनधर्म का त्याग करना है ।। १५८६ ॥
प्रश्न - 'क्षपक का त्याग ही जिनधर्म का त्याग है" ऐसा क्यों कहा ?
उत्तर "न धर्मो धार्मिकैः बिना" धर्म धर्मात्मा के बिना नहीं रह सकता । अर्थात् जैनधर्म रत्नत्रय
स्वरूप है और रत्नत्रय धर्म साधुओं में ही रहता है, इसीलिए साधुको धर्मात्मा कहते हैं। इससे स्वयमेव यह सिद्ध हो जाता है कि धर्मात्मा क्षपक का त्याग ही जिनधर्म का त्याग है।