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मरणकण्डिका -४३३
प्रश्न - 'क्षपक को मध्यम रसों का पानक देना चाहिए' इसमें मध्यम शब्द का क्या अभिप्राय है ?
उत्तर - मध्यम शब्द का यह भाव है कि वह अधिक कटुक न हो, चरपरा न हो, खट्टा न हो, कषायला न हो, खारा न हो, मीठा न हो, अधिक गर्म या ठण्डा न हो, स्वादहीन न हो, दुर्गन्धित न हो, वात, पित्त एवं कफादि को उत्पन्न करने वाला न हो, समाधि में विघ्न उत्पन्न करने वाला न हो, स्वच्छ हो एवं कपड़े से छान लिया गया हो। ऐसा पानक संस्तरारूढ़ क्षीणकाय क्षपक को देना योग्य है।
पानक का भी त्याग यदासौ नितरां क्षीणस्तदपि त्याज्यते तदा।
पटीयांसो न कुर्वन्ति, निरर्थक नियोजनम् ॥१५७१।। अर्थ - जब संस्तरारूढ़ क्षपक अतिक्षीण हो जाय तब हानि' नामक सूत्र में कहीं गई विधि के अनुसार पानक का भी त्याग करा देना चाहिए । ठीक है, बुद्धिमान पुरुष व्यर्थ का नियन्त्रण नहीं करते अर्थात् निर्यापकाचार्य क्षपक की क्षमतानुसार शनैःशनैः क्रमश: ही पानक का त्याग कराते हैं ॥१५७१ ।।
वेदनादि उत्पन्न हो जाने पर करने योग्य कर्तव्य इत्थं शुश्रूषमाणस्य, संस्तरस्थस्य वेदना ।
पूर्व-कर्मानुभावेन, काये काप्यस्य जायते ॥१५७२ ।। अर्थ - इस प्रकार निर्यापकाचार्य के निर्देशानुसार जिसकी सेवा एवं वैयावृत्य हो रही है ऐसे संस्तरारूद क्षीणकाय क्षपक के शरीर में पूर्वबद्ध असाताकर्मोदयसे विघ्नकारी वेदना उत्पन्न हो सकती है ॥१५७२ ।।
दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तपो-रत्न-भृतस्ततः ।
संसार-सागरे घोरे, यति-पोतो निमज्जति ।।१५७३ ।। अर्थ - भयंकर वेदना के कारण सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं तप रूपी रत्नों से भरी हुई यह क्षपक मुनि रूपी नौका घोर संसार सागर में डूब सकती है।।१५७३॥
निमज्जन्तं भवाम्भोधौ, यो दृष्ट्वा तमुपेक्षते ।
अधार्मिको निराचारो, नापरो विद्यते ततः ॥१५७४।। अर्थ - सम्यग्दर्शनादि गुणों से भरी क्षपक रूपी नाव को संसार-समुद्र में डूबते हुए देखकर जो निर्यापकाचार्य उसकी उपेक्षा करता है उससे अधिक अधार्मिक एवं आचारहीन अन्य कोई नहीं है ॥१५७४ ।।
वैयावृत्य-गुणाः पूर्व, कथिता ये प्रपञ्चतः।
तैरुपेक्षापरो नीचस्त्यज्यते निखिलैरपि ॥१५७५ ॥ अर्थ - जो क्षपक की उपेक्षा करता है वह नीच है और पूर्व में वैयावृत्य के विस्तार पूर्वक जो गुण कहे गये हैं, उन सब गुणों से वह भ्रष्ट होता है ।।१५७५ ।।